Friday, October 29, 2010

नादान दिल

दूर हो के भी दूरी का एहसास नहीं होता,
पास होके भी दिल पास नहीं होता,
न समझ है ये, नादान भी है,
अपने से परेशान भी है,
फँस जाता है कभी ये भवर में,
कभी अट्खेलिया भी करता है,
कभी शांत रहता है ,
कभी शरारत भी करता है,
जब रूठता है ये खुद से,
बड़े प्यार से झगड़ता  भी है,
कभी खुद से नाराज़ है ये,
कभी खुद को ही मनाता भी है,
कभी धधकता है ये आग सा,
कभी है शीतल एहसास सा,
हर पल अलग रंग है इसका,
शायद यही ढंग है इसका,
कैसे समझाऊ इस दिल को मैं,
या यूँ ही नासमझ रहने दू,
कभी सोचती हूँ मैं,
क्यूँ ना इसको यूँ ही जीने दू |

Friday, October 22, 2010

तमाशा भारत का

पिछले सप्ताह खत्म हो चुके राष्ट्रमंडल खेल में भारत का प्रदर्शन उच्चतम दर्जे का रहा | भारतीय खिलाडियों ने कुल १०१ पदक जीत कर सम्पूर्ण विश्व में अपने देश को दूसरा स्थान दिला कर एक इतिहास रचा है | खिलाडियों के इस बेहतरीन प्रदर्शन से सम्पूर्ण भारत गौरवान्वित हुआ है |
देश की नागरिक होने के नाते मैं फिर भी यहीं कहूँगी कि इस खेल के उदघाटन समारोह से समापन समारोह तक मैं एक बार ये महसूस तक नहीं कर पायी कि " मेरा भारत महान" | खिलाडियों के इस उम्दा प्रदर्शन ने मुझे रोमांचित तो किया परन्तु इस खेल के अन्य पहलुओं पर नज़र डालने से इसकी छवि धूमिल ही हुई है, चाहे वे खेल से जुड़े घुटाले हो, फुट ओवर ब्रिज का गिरना हो, खेल गाँव कि बदहाल स्थिति हो या फिर खेल शुरू होने से पहले विदेशियों का अलग अलग ढंग से हमारे देश को अपमानित करना हो |
१४ अक्तूबर को खेल कि समाप्ति के बाद भी आज के दिन तक समाचार पत्र इस खेल कि बदहाल स्थिति को चिल्ला चिल्ला कर व्यक्त कर रहे हैं | आयोजन समिति के सदस्यों से लेकर नेताओं तक ने जो घुटाले किये वह शर्मनाक थे | उससे भी अधिक शर्मनाक स्थिति तो अब है जब वह सभी अपने जेबे गर्म करने के बाद एक दूसरे के ऊपर कीचड उछाल कर अपना पलड़ा झाड़ने कि कोशिश में लगे हुए  है | राष्ट्रमंडल खेलो के पूरे आयोजन में किसी भी व्यक्ति ने अपना काम ईमानदारी से ना कर के देश को अपमानित ही किया है |  आयोजन समिति के सदस्यों और सत्ताधारी नेताओं ने चन्द हरे  कागज़ के टुकडो के कारण भारत के सम्मान को सम्पूर्ण विश्व के समक्ष जिस प्रकार से धूल में मिलाया है उसके बाद तो युवा पीढ़ी के मन में एक ही बात आती है कि इन सत्ताधारियों को जड़ से उखाड़ फेकना चाहिए, ये पूर्ण रूप से खोखले हो चुके है, अब हम युवा पीढ़ी अपने भारत की भूमि पर ईमानदारी के बीज से एक नया पेड़ लगायेंगे और भारत कि शान-शौकत का झंडा विश्व में फिर से फहरायेंगे |

Sunday, October 17, 2010

खेल विचारो का

पापा से कुछ यूँ बहस शुरू हुई,
फटाफट बढ़ने लगी घडी की सुई,
मैंने कहा पापा मोबाइल दिलाओ,
बोले,बेटा बेसिक से काम चलाओ,
एक रात जाना था मुझको डिस्को,
बोले,क्या जाते देखा है घर से किसी को?
लगती है भीड़ उनको बेबसी,
मैंने कहा वो तो है इनटीमेसी ,
मेरे हर नज़रिए पर होती है जंग,
वो कहते है मेरी नज़रे है भंग,
हर बात के आड़े आते उनके संस्कार,
वो कहते तुम्हारा है दुर्व्यवहार,
इस बहस के बाद भी यही है कहना,
युवा पीड़ी माँ-बाप के साथ ही रहना,
वृद्ध आश्रम मे न उनको छोड़ना,
विश्वास उनका कभी न तोडना,
विचारों के फेर को दिल से ना लगाना,
अपनी विजय के लिए उनको ना सताना,
आग भरी सोच को शान्ति से फैलाना,
खुद मानेगे वो तुझको,कोशिश कर यकीन कभी ना दिलाना |

आत्मविश्वास

जब चला था पहला कदम मैंने,
दूसरे कदम ने उसका साथ दिया था,
फिर भी सहारे की ज़रूरत थी,
मेरे अपनों ने अपना हाथ दिया था,
संभल संभल कर आगे बढ़ रही थी,
अपनी नजरो में मैं सही थी,
तभी अनजान ने मुझे रोका,
कहा किस ओर जा रही हो,
गलत करते हुए भी,
कहती हो मैं सही हूँ !
उस अनजान को मैं नही पहचानती थी,
परन्तु जीवन की सच्चाई जानती थी,
अपने कदमो पर था विश्वास मुझे,
उन रास्तो पर थी मंजिल की आस मुझे,
इसी विश्वास पर अनजान का सामना किया,
उसकी गलत शंकाओं का सही समाधान किया,
तत्पश्चात आगे बढाए कदम मैंने,
अगले कदम पर ही थी बाधाओं की चट्टान खड़ी,
मुझे लगा उस अनजान से क्या मैं बेकार लड़ी,
लेकिन अब पीछे मुड़ने का सवाल न था,
आगे बढती गयी चट्टान को गिराते हुए,
उत्त्पन्न होती शंकाओं की दबाते हुए,
अचानक मेरे कदम लडखडाये,
मेरे द्रिड विश्वास भी थे डगमगाए,
मैं सत्य कहती हूँ,
लगा जीवन को क्यू सहती हूँ ?
आँखें मंद पड़ने लगी,
स्वयं अपने से ही लड़ने लगी,
उस घडी न जाने कौन अज्ञात आ गया,
कानो में जीवन का मधुर संगीत गा गया,
देख ना पा रही थी उसको,
परन्तु अज्ञात जीवन समझा गया मुझको,
फिर विश्वास को द्रिड किया,
मंजिल पाने का संकल्प लिया,
ज्यो ही चार कदम और बढाए,
राहो में अपनी फूल बिछे पाए,
फिर मंजिल लगी आसान,
हर एक पिछला कदम छोड़ रहा था अपना निशान,
हृदय लहर हिलोरे खा रही थी,
मैं शायद स्वयं को पा रही थी,
जब कदमो को और आगे बढ़ाया,
तो जीवन मंजिल रुपी आइना पाया,
उस आईने में स्वयं के अस्तित्व को पहचाना,
जीवन के सत्य-असत्य को जाना,
तब आत्मा में चिर संतोष जगा,
कुछ और पाने की भूख मिट गयी,
ज्ञात हो गया की मेरी मंजिल मुझे मिल गयी |

Sunday, October 10, 2010

बातचीत

आज दिल ने पूछा हँसीं से,
क्यूँ नहीं दिखती तू लबो पर,
हँसीं खिलखिलाई और बोली,
खुद पूछो अपने से,
तुमने ही मेरा साथ छोड़ दिया,
कहते हो मैंने रास्ता मोड़ लिया,
तुम्हारे लबो से दिल तक जो रस आता था,
तुम्हारे अश्को का दर्द भी भूले जाता था,
आज बैठी हू  मैं एक कोने में,
रोती हू तुम्हारे रोने में,
कोशिश करती हू की फिर मुस्कुराऊ तुम्हारे लबो पर,
टीस बताती है की रहती हू तुम्हारे गमो पर,
तुम्हारे गमो में भी तुम्हारे साथ हू,
मुझसे ना कहना की मैं अनाथ हू,
आयेगी जब ख़ुशी तब मुस्कुराऊँगी,
उस वक़्त तुम्हारे हर आंसू को रुलाऊँगी |
 

आतंकवाद

वक़्त था,
जब सुनते थे खिलौनों का शोर,
हसीं आ जाती थी,
आज जीवन का हर शोर,
भयावय लगता है,
जब सुनते है आतंक की आवाज़,
आत्मा छुपने की जगह ढूँढती  है,
आतंक का हर एक शोर,
न जाने कितनी जिंदगी लीलती है,
वो खून से रंगी दीवारे,
गिरती हुई ऊंची मीनारे,
माँ का सूना होता आँचल,
मासूम बच्चो के दिलो की हलचल,
उस पत्नी की आँखों से बहते अश्क,
इस दृश्य से आत्मा छटपटाती है,
आंसू की हर एक बूँद सागर बनाती है,
सागर खून की मिलावट छलकाती है,
कब होगा ऐसी ज़िन्दगी का अंत,
अब तो संसार भी पड़ने लगा है मंद,
मनुष्य स्वयं के अस्तित्व की जड़े हिलाता है,
मूर्ख ! अपने नष्ट पर खुद ही खिलखिलाता है,
जब आधाररहित महसूस होगा जीवन,
शायद महसूस होगा उसे अपनापन | 
 

Thursday, October 7, 2010

सफ़र..

सड़क के किनारे से गुजर रही थी,
खुद अपने से ही लड़ रही थी,
अचानक ध्यान किसी ने खीचा मेरा,
देखा बूढा पिता रो रहा था,
उसका बेटा अर्थी पे सो रहा था,
चंद आसू मेरे आये,
कुछ ना कर सकी, कदम आगे बढाए,
माँ लाड़ कर रही थी अपने बच्चे को,
अचानक छोटू (भिखारी) बोला " कुछ खाने को दे दे" ,
कहा उसने "आगे बढ़, छुट्टे नहीं है"
उसकी ममता का स्वांग उसी पल उतर गया,
मेरे जीवन में एक और नया रंग चढ़  गया,
अगले  नुक्कड़ बच्चे थे खेल में मग्न ,
कुछ कपड़ो में कुछ थे नग्न,
चंद पल मैंने भी कंचे खेले,
मेरे कपडे भी बच्चो से हुए मैले,
उस सफ़र ने जीवन के ढेरो रंग दिखा दिए,
कुछ मील की दूरी ने कई उत्तर मुझे दिए |

Wednesday, October 6, 2010

समाज का आइना...

सामाज की कुरीतियों को देख के जलता है मन,
नाममात्र का रह गया है यहाँ अपनापन,
कहीं टनों अनाज पर घुन लग रहा है,
कहीं इंसान भूखा मर रहा है,
कोई करोड़ों की चादर ओढ़ रहा है,
कोई चंद पैसो की कमी से दम तोड़ रहा है,
कभी माँ दुर्गा पर माला चढ़ रही है,
कभी नवजात बेटियों की बलि चढ़ रही है,
भाषण में रह गया है स्त्रियों का सम्मान,
यूँ तो हर गली में हो रहा है उनका शिकार,
जो लगाते है बाल शिक्षा का नारा,
कहते सुना है उनको "छोटू"  है नौकर हमारा,
कहीं किसी खेल पर करोड़ों खर्च होता है,
तो कहीं गरीब सचिन एक गेंद को रोता है,
जनसँख्या गिनने का तो है उपचार,
पर गुणवत्ता नापने की स्थिति लाचार,
कवर पेज पर होती है करोड़ों की शादी,
पर कहाँ रहती है मीडिया- जब दहेज़  के कारण होती है नारी की बर्बादी,
मूक दर्शन से नहीं होगा इसका उपचार,
आओ, मिल कर उठाये कलम की तलवार |

Monday, October 4, 2010

तेरे बिन...

एक पल कुछ ऐसा सिखा गयी ज़िन्दगी,
उस पल मौत दिखा गयी ज़िन्दगी,
बिन तेरे जीवन आधार रहित सा लगता है,
बिन तेरे जीना खौफ सा लगता है,
हर कोने से तेरी आहट आती है,
तेरी यादो से आखें भीग जाती है,
यूँ क्यू तू अकेला ही चल दिया,
क्यू ना मुझे साथ आने का पल दिया,
महसूस कौन करेगा मेरे एहसासों को,
अब कौन महकाएगा मेरी साँसो को,
जाने से पहले मुड़ के देखा तो होता,
एक कोशिश से मैंने तुझको रोका तो होता,
जिद करता तो साथ चलती मैं तेरे,
वीरान ज़िन्दगी का ज़ख्म तो न लगता मेरे |

Sunday, October 3, 2010

दुर्दशा - कामन वेल्थ गेम

कभी गिरता है ब्रिज, कभी गिरती है सीलिंग,
फिर भी मेंनजमेंट को नहीं है शर्म की फीलिंग,
भारत का सम्मान क्यूँ रखा है  ताक  पर,
पट्टी पड़ी है क्या सरकार की आँख पर,
विदेशी कदम कदम पर भारत को कोसते है,
हम उनके भव्य इंतेज़ाम की सोचते है,
पीड़ा उनको भी है जिनका निवास है मलिन बस्ती,
क्या रखा है बनाने में झूठी  हस्ती ,
क्या भूखे  पेट कभी खेला है कोई,
भूख  के कारण तो आम जनता है रोई,
जो रकम खेल पे बहाई जा रही है,
कोई पूछ सकता है वो कहा से आ रही है?
उनके कुछ टुकडो से न जाने कितनी ही ज़िन्दगी  सवर  जाती,
कितनो की जीवन नौका फसे भवर से तर जाती |

Saturday, October 2, 2010

ज़िन्दगी rocks

आओ ज़िन्दगी को एक नाम दे दे,
इसके दामन में एक खुशनुमा शाम दे दे,
उस शाम का रंग कर दे इतना गहरा,
उस पल न हो ज़िन्दगी पर सिसकियो का पहरा,
सिहरती ज़िन्दगी पर डाले कम्बल प्यार का,
ज़िन्दगी खुद कहे मेरा रिश्ता है तुझसे यार का,
तो आओ ज़िन्दगी को एक नाम दे दे,
इसके दामन में एक खुशनुमा शाम दे दे |

ज़िन्दगी की खोज

खतरे बहुत आयेंगे राह में, मुश्किलें भी आयेंगी,
घबराना नहीं ऐ दिल मेरे, ऑंखें आंसू भी बहायेंगी

चाहे पथरीले हो रास्ते, चाहे अँधकार फैला हो,
तू खुद में आग जलाये रखना, चाहे समाज कितना भी मैला हो

आशा की नाव को, मेहनत से करना पार,
याद रख कमज़ोर ही, मानते है हार

कोई दिन कभी सतायेगा, कोई षण कभी रुलायेगा,
फिर भी बढ़ना आगे, एक दिन तू ही मुस्कुरायेगा

बहुत होंगे तेरे विरोधी, कदम पीछे खीचेंगे,
जब देखना चाहेगा सच्चाई, आँख तेरी मीचेंगे,

न करना खुद को कमज़ोर, मंजिल होगी आगे खड़ी
सफ़र भी करना तय ऐसे, याद आये हर घडी

इंसान वही है जिसने, तक़दीर अपने हाथों से लिखी,
वह तो बुत है जिसको किस्मत अपनी लकीरों में दिखी,

तय कर तू है बुत या है इंसान,
ख़ोजना उत्तर सत्य, अन्यथा तू ज़िन्दगी से बईमान |