Saturday, April 10, 2021

आजकल मैं कुछ थकी थकी सी हुँ 

वक़्त चल रहा हैं लेकिन मैं थमी सी हुँ


ना जाने सारा दिन मैं क्या सोचती हुँ 

खुद ही के भीतर मैं क्या खोजती हुँ 


पंख लगा कर आसमां को छूना चाहती हुँ 

चाँद और सितारों से बतियाना चाहती हुँ 


कभी पानी की तेज़ कलकलाहट सुनना चाहे दिल 

कभी नाचते मयूरो को देख मन जाये खिल 


कभी मुझे वो फूलो की बगिया लुभाती हैं 

जिन पर रंग बिरंगी तितलियाँ मंडराती हैं 


कभी लगे मैं फिर बच्ची हो जाऊ 

बिन बात के रोउ और खूब खिलखिलाऊ 


माँ को अपनी कसकर गले लगाऊ 

गोद में उनकी रख कर सिर, मैं सुकून से सो जाऊ 


क्यूंकि आजकल मैं कुछ थकी थकी सी हुँ 

वक़्त चल रहा हैं लेकिन मैं थमी सी हुँ

Wednesday, March 11, 2015

ये बेटी क्या होता हैं माँ ?

( गर्भ से आवाज आती हैं " माँ, ये पापा क्या कह रहे हैं, ये बेटी हैं इसे मार दो। )

मैं बेटी हूँ !!
ये बेटी क्या होता हैं माँ ?

क्या बेटी गर्भ मे सताती हैं?
क्या बेटी होने से प्रजनन पीड़ा अधिक बढ़ जाती हैं?

क्या बेटी तुमको माँ का दर्जा नही दिलाती हैं?
क्या बेटी तुम्हारी गोद नही सजाती हैं?

क्या बेटी वंश नही बढ़ाती हैं?
क्या बेटी बस रूलाती हैं?

ये बेटी क्या होता हैं माँ ?

Sunday, March 8, 2015

नही बनना था मुझे यूँ देश की बेटी

नही बनना था मुझे यूँ देश की बेटी
मैं अपने माँ बाप की दुलारी अच्छी थी

तन को अपने निर्वस्त्र कराकर
लबो‍ की अपनी हँसी मिटाकर
नही बनना था मुझे देश की बेटी

चेहरे  को अपने यूँ  रुंदवाकर
इज़्ज़त अपनी छिनवाकर
नही बनना था मुझे देश की बेटी

खून से लतपत शरीर को सड़क पर फिकवाकर
आत्मा को अपनी छननी करवाकर
नही बनना था मुझे देश की बेटी

माँ बाप के दिये नाम को ' निर्भया ' बनाकर
अपने अस्तितव को यूँ मिटाकर
नही बनना था मुझे देश की बेटी

अब ना जलाओ मेरे नाम की मोमबत्तियाँ
मैं अपने माँ बाप के जीवन की ज्योति अच्छी थी
नही बनना था मुझे यूँ देश की बेटी
मैं अपने माँ बाप की दुलारी अच्छी थी

Saturday, June 15, 2013

...

लिखना जब से छूटा है,
लगे साथ कोई टूटा है,
कागज़ कलम भी मुझसे रूठे है,
कहे तेरे किए हर वादे झूठे है,
कोई ना समझे मेरे भीतर की उधेड़बुन को,
किन अक्षरों में लिखूँ
ना लिख पाने के खाली पन को,
उँगलियाँ तो मेरी अब भी कलम की ओर बढ़ती है,
लिख ना पाऊँ तो क्या
औरो की कलम का लिखा तो पढ़ती हूँ,
फिर लिख पाने की चाहत
ना लिख पाने की कसक से बहुत ज्यादा है,
मैं लिख पाऊँगी
फिर से
ये मेरा वादा है.
 

Tuesday, September 25, 2012

....

रूठने पर भी रूठ ना पाऊं
शैतानियों से अपनी वो खूब हसाएं,
जब चोट लग जाए मुझे
नम आँखों से मुझपे चिल्लाये,
हर सन्डे जब खेले कुछ भी
जान बूझ के मुझे जिताए,
मिर्च हो जब सब्जी में ज्यादा
हाथो से अपने मुझे पानी पिलाए,
मुझे कभी जो नींद ना आये
थपकी देकर मुझे सुलाए,
खाना जो ना मैं खाऊं कभी
डाटे जोर से और मुझे रुलाये,
माँ-बाप से दूर आकर भी
ना जाने क्यूँ उनकी याद ना आये,
पहले मैं कभी अधूरी थी
साथ उनका मुझे पूरा कर जाए,
बस यूँ ही जीती रहूँ उम्र भर,
ज़िन्दगी बस यूँ ही कट जाए.

Thursday, August 23, 2012

...

कुछ नादां ख्वाइशे है मेरी
पूरी करने की कोशिश जिन्हें मैं करती रहूँ,
पता ना हो जाना कहा हैं
कदम मेरे चलते रहे,
आशाएं मेरी ना डूबे
सूरज चाहे ढलता रहे,
शोर मेरा ना सुन पाए कोई
खामोशी अपनी मैं सुनती रहूँ,
लब पर बस मुस्कराहट हो
गम दिल में चाहे पलता रहे,
पता ना हो लिखना क्या हैं
पर कलम मेरी चलती रहे,
खो जाऊ मैं सबके लिए
खुद के लिए पलती रहूँ,
रौशनी में भी चाहे ना पहचाने कोई
अँधेरे में खुद से मगर में मिलती रहूँ,
डर ना हो मौत का मुझे
उसे अपना समझ मैं फिरती रहूँ.
कुछ नादां ख्वाइशे है मेरी
पूरी करने की कोशिश जिन्हें मैं करती रहूँ.

Tuesday, August 14, 2012

...

कुछ लिखो तो
कहते है लोग
तुम जो महसूस करते हो
वो लिखते हो
क्या किसी के एहसासों को
शब्दों में पिरोना
मुश्किल है ?

कोई शांत हो तो

कहते है लोग
गंभीर हो तुम
क्या किसी के मौन को समझना
मुश्किल है ?

कोई ज़ख़्मी हो तो

ज़ख्म को उसके
कुरेदते है लोग
क्या किसी के ज़ख्म पे मरहम लगाना
मुश्किल है ?

आँख से गिरते आंसू देख

कहते है लोग
कमज़ोर हो तुम
क्या अपनी ही आँख से आंसू छलकाना
मुश्किल है ?


आपको अपना कहते है
जो लोग
उनके लिए
आपको ही समझ पाना
क्यूँ मुश्किल है ?