भारतीय परिवेश के तमाम क्षेत्रों के समान ही सिनेमा के क्षेत्र में भी दलितों की स्थिति निरीह एवं लाचार हैं. भारतीय सिनेमा का नजरिया भी दलितों के प्रति कुछ खास भिन्न नहीं है. दलितों के प्रति करूणा दिखाकर भारतीय फिल्म निर्माता एवं निर्देशक अछूत कन्या, आदमी, अछूत, सुजाता, बूटपालिश, अंकुर,सदगति, वेलकम तो सज्जनपुर, पीपली लाइव, आक्रोश, भीम गर्जना, और राजनीति जैसी फिल्मों का निर्माण तो किया हैं और इनमे से कुछ फिल्मो में दलितों को केंद्र में और कुछ में सहयोगी भूमिका में दलित के चरित्र को दर्शाया भी गया हैं परन्तु जिस गंभीरता और शिद्दत से दलित जाति के प्रश्न को उठाए जाने की जरूरत है, उस तरह से इन फिल्मो ने उसको नहीं उठाया गया हैं.
हिन्दी सिनेमा के कुछ ठोस यथार्थ हैं- नौकर का नाम दीनु या रामू ही होगा, बहुत होगा तो उसके नाम के साथ काका भी जोड़ दिया जाएगा. बेशक दलित यथार्थ हिन्दी सिनेमा में पर्याप्त जगह प्राप्त नहीं कर पाया है. भारत में प्रतिरोध का सिनेमा अनुपस्थित है, फिल्मों में असली भारत कम ही दिखता है, फिल्मों में काम करने वालों में भारत की विविधता नहीं दिखती.फिल्मों में दलित हमेशा लाचार ही होता है, जबकि पिछले तीन-चार दशक भारत के दलितों के लिए प्रतिरोध के दशक रहे हैं. दलित लगान में कचरा क्यों होता है, दलित दिल्ली-6 की जमादारिन क्यों हैं, जिससे दुधमुंहे बच्चे कहते हैं कि तुम सबको बड़ा बनाती हो, हमें भी बड़ा बना दो. यह मजाक किसी पुजारिन के साथ भी तो किया जा सकता था, लेकिन नहीं, यह नहीं हो सकता. इसके साथ ही हम सुजाता फिल्म की अछूत-दलित कन्या सुजाता की दयनीय चित्रण को कैसे भूल सकते हैं.फिल्म में सुजाता नाम की दलित कन्या चुप रहनेवाली, गुनी, सुशील और त्यागी ‘मैरिज-मैरिटल’ यानी सेविका बनी है जबकि उसी परिवार-परिवेश की असली बेटी एक प्रतिभावान मंचीय नर्तकी, आधुनिका, वाचाल और अपनी मर्जी की इज्जत करनेवाली शख्सियत बनती है. हमारी फिल्मे दलितों को सबल दिखाने में हमेशा ही परहेज करती आई हैं और उसका एक सशक्त उदाहरण प्रकाश झा की नयी फिल्म राजनीति में देखा जा सकता हैं. दलितों का नेता ‘सूरज’ (अजय देवगन), जो भरी सभा में सवर्णों और ऊंचे लोगों से लोहा लेता दिखाई देता है, आखिर वह भी उसी सवर्ण परिवार में जन्मा हुआ साबित होता है. अंततः फिल्म इसी परिपाटी पर लौट आती है कि दलितों का वह मसीहा इसी कारण से इतनी घाघ राजनीति कर सका क्यूंकि उसके अन्दर उसी राजनीतिक खानदान का खून था. फिल्म की कहानी का आधार कुछ भी रहा हो, लेकिन यह सत्य है कि फिल्म समाज की दलितों के प्रति इसी तस्वीर को पुष्ट करती है किसी दलित में स्वाभाविक रूप से वर्चस्ववादी लोगों का सामना करने का साहस ही नहीं है. हमारी फिल्मो में दलितों को सबल दिखाने से परहेज क्यों किया जाता हैं? भारतीय सवर्ण दलितों से जितनी नफरत करते हैं, उतनी नफरत अमेरिका में अश्वेतों से भी नहीं की जाती.
सवाल दलितों पर फ़िल्में बनाने का नहीं है, सवाल ये है की वे जब परदे पर उतारे जाते हैं तो किस तरह का चरित्र उनमें उभारा जाता है. ज़रा सोचिये कि आत्म-बोध, आत्म-सम्मान, मनुष्यगत-अस्मिता, स्वाभिमान जैसे गुण उसमें क्यूँ नहीं होते? वह अपने तिरस्कार पर ख़ुद क्यों चीत्कार करता नहीं दिखता? वह अपने प्रति हर ज़्यादती-अत्याचार को आत्मसात करनेवाला ही क्यों है? उसकी ये छवि उसके असल जीवन में अत्याचारों के विरुद्ध उठाए प्रतिकारों-चीत्कारों को ख़ारिज करती है. उसके आत्म-सम्मान के संघर्ष को नकारती है.
जातिगत दृष्टिकोण और अन्याय का प्रतिकार करने वाली अभी तक की सबसे सशक्त फिल्म बेंडिट क्वीन ही दिखाई देती हैं जो साधारण दलित स्त्री से दस्यु सुंदरी और फिर फिर सांसद बनी फूलन देवी पर आधारित थी. इसके अलावा शायद ही कोई ऐसी फिल्म हैं जिसने दलित प्रश्न को ठीक ढंग से छुआ तक हो.
खैर..सिनेमा में दलित की स्थिति का वर्णन करने के बाद बस इतना ही कहना चाहूंगी की सिनेमा में दलित बहस का मुद्दा ना होकर सामाजिक व्यवस्था का एक महत्वपूर्ण अंग हैं और इसके लिए किसी बहस की ज़रुरत नहीं बल्कि सही मायनों में इसके उत्थान, विकास और सशक्तिकरण के लिए कुछ करने की ज़रुरत हैं. वैश्वीकरण और आधुनिकता की इस बयार में हम सबको यही कोशिश करनी चाहिए की समाज में दलित समुदाय की पहचान की नयी चेतना जागृत कर सके और इनको हर क्षेत्र में सशक्त पहचान दिलाई जा सके.
( विभिन्न वेबसाइट्स पर मिली जानकारी से ये पोस्ट संभव हो पायी हैं.)
हिन्दी सिनेमा के कुछ ठोस यथार्थ हैं- नौकर का नाम दीनु या रामू ही होगा, बहुत होगा तो उसके नाम के साथ काका भी जोड़ दिया जाएगा. बेशक दलित यथार्थ हिन्दी सिनेमा में पर्याप्त जगह प्राप्त नहीं कर पाया है. भारत में प्रतिरोध का सिनेमा अनुपस्थित है, फिल्मों में असली भारत कम ही दिखता है, फिल्मों में काम करने वालों में भारत की विविधता नहीं दिखती.फिल्मों में दलित हमेशा लाचार ही होता है, जबकि पिछले तीन-चार दशक भारत के दलितों के लिए प्रतिरोध के दशक रहे हैं. दलित लगान में कचरा क्यों होता है, दलित दिल्ली-6 की जमादारिन क्यों हैं, जिससे दुधमुंहे बच्चे कहते हैं कि तुम सबको बड़ा बनाती हो, हमें भी बड़ा बना दो. यह मजाक किसी पुजारिन के साथ भी तो किया जा सकता था, लेकिन नहीं, यह नहीं हो सकता. इसके साथ ही हम सुजाता फिल्म की अछूत-दलित कन्या सुजाता की दयनीय चित्रण को कैसे भूल सकते हैं.फिल्म में सुजाता नाम की दलित कन्या चुप रहनेवाली, गुनी, सुशील और त्यागी ‘मैरिज-मैरिटल’ यानी सेविका बनी है जबकि उसी परिवार-परिवेश की असली बेटी एक प्रतिभावान मंचीय नर्तकी, आधुनिका, वाचाल और अपनी मर्जी की इज्जत करनेवाली शख्सियत बनती है. हमारी फिल्मे दलितों को सबल दिखाने में हमेशा ही परहेज करती आई हैं और उसका एक सशक्त उदाहरण प्रकाश झा की नयी फिल्म राजनीति में देखा जा सकता हैं. दलितों का नेता ‘सूरज’ (अजय देवगन), जो भरी सभा में सवर्णों और ऊंचे लोगों से लोहा लेता दिखाई देता है, आखिर वह भी उसी सवर्ण परिवार में जन्मा हुआ साबित होता है. अंततः फिल्म इसी परिपाटी पर लौट आती है कि दलितों का वह मसीहा इसी कारण से इतनी घाघ राजनीति कर सका क्यूंकि उसके अन्दर उसी राजनीतिक खानदान का खून था. फिल्म की कहानी का आधार कुछ भी रहा हो, लेकिन यह सत्य है कि फिल्म समाज की दलितों के प्रति इसी तस्वीर को पुष्ट करती है किसी दलित में स्वाभाविक रूप से वर्चस्ववादी लोगों का सामना करने का साहस ही नहीं है. हमारी फिल्मो में दलितों को सबल दिखाने से परहेज क्यों किया जाता हैं? भारतीय सवर्ण दलितों से जितनी नफरत करते हैं, उतनी नफरत अमेरिका में अश्वेतों से भी नहीं की जाती.
सवाल दलितों पर फ़िल्में बनाने का नहीं है, सवाल ये है की वे जब परदे पर उतारे जाते हैं तो किस तरह का चरित्र उनमें उभारा जाता है. ज़रा सोचिये कि आत्म-बोध, आत्म-सम्मान, मनुष्यगत-अस्मिता, स्वाभिमान जैसे गुण उसमें क्यूँ नहीं होते? वह अपने तिरस्कार पर ख़ुद क्यों चीत्कार करता नहीं दिखता? वह अपने प्रति हर ज़्यादती-अत्याचार को आत्मसात करनेवाला ही क्यों है? उसकी ये छवि उसके असल जीवन में अत्याचारों के विरुद्ध उठाए प्रतिकारों-चीत्कारों को ख़ारिज करती है. उसके आत्म-सम्मान के संघर्ष को नकारती है.
जातिगत दृष्टिकोण और अन्याय का प्रतिकार करने वाली अभी तक की सबसे सशक्त फिल्म बेंडिट क्वीन ही दिखाई देती हैं जो साधारण दलित स्त्री से दस्यु सुंदरी और फिर फिर सांसद बनी फूलन देवी पर आधारित थी. इसके अलावा शायद ही कोई ऐसी फिल्म हैं जिसने दलित प्रश्न को ठीक ढंग से छुआ तक हो.
खैर..सिनेमा में दलित की स्थिति का वर्णन करने के बाद बस इतना ही कहना चाहूंगी की सिनेमा में दलित बहस का मुद्दा ना होकर सामाजिक व्यवस्था का एक महत्वपूर्ण अंग हैं और इसके लिए किसी बहस की ज़रुरत नहीं बल्कि सही मायनों में इसके उत्थान, विकास और सशक्तिकरण के लिए कुछ करने की ज़रुरत हैं. वैश्वीकरण और आधुनिकता की इस बयार में हम सबको यही कोशिश करनी चाहिए की समाज में दलित समुदाय की पहचान की नयी चेतना जागृत कर सके और इनको हर क्षेत्र में सशक्त पहचान दिलाई जा सके.
( विभिन्न वेबसाइट्स पर मिली जानकारी से ये पोस्ट संभव हो पायी हैं.)