जब चला था पहला कदम मैंने,
दूसरे कदम ने उसका साथ दिया था,
फिर भी सहारे की ज़रूरत थी,
मेरे अपनों ने अपना हाथ दिया था,
संभल संभल कर आगे बढ़ रही थी,
अपनी नजरो में मैं सही थी,
तभी अनजान ने मुझे रोका,
कहा किस ओर जा रही हो,
गलत करते हुए भी,
कहती हो मैं सही हूँ !
उस अनजान को मैं नही पहचानती थी,
परन्तु जीवन की सच्चाई जानती थी,
अपने कदमो पर था विश्वास मुझे,
उन रास्तो पर थी मंजिल की आस मुझे,
इसी विश्वास पर अनजान का सामना किया,
उसकी गलत शंकाओं का सही समाधान किया,
तत्पश्चात आगे बढाए कदम मैंने,
अगले कदम पर ही थी बाधाओं की चट्टान खड़ी,
मुझे लगा उस अनजान से क्या मैं बेकार लड़ी,
लेकिन अब पीछे मुड़ने का सवाल न था,
आगे बढती गयी चट्टान को गिराते हुए,
उत्त्पन्न होती शंकाओं की दबाते हुए,
अचानक मेरे कदम लडखडाये,
मेरे द्रिड विश्वास भी थे डगमगाए,
मैं सत्य कहती हूँ,
लगा जीवन को क्यू सहती हूँ ?
आँखें मंद पड़ने लगी,
स्वयं अपने से ही लड़ने लगी,
उस घडी न जाने कौन अज्ञात आ गया,
कानो में जीवन का मधुर संगीत गा गया,
देख ना पा रही थी उसको,
परन्तु अज्ञात जीवन समझा गया मुझको,
फिर विश्वास को द्रिड किया,
मंजिल पाने का संकल्प लिया,
ज्यो ही चार कदम और बढाए,
राहो में अपनी फूल बिछे पाए,
फिर मंजिल लगी आसान,
हर एक पिछला कदम छोड़ रहा था अपना निशान,
हृदय लहर हिलोरे खा रही थी,
मैं शायद स्वयं को पा रही थी,
जब कदमो को और आगे बढ़ाया,
तो जीवन मंजिल रुपी आइना पाया,
उस आईने में स्वयं के अस्तित्व को पहचाना,
जीवन के सत्य-असत्य को जाना,
तब आत्मा में चिर संतोष जगा,
कुछ और पाने की भूख मिट गयी,
ज्ञात हो गया की मेरी मंजिल मुझे मिल गयी |