Thursday, October 7, 2010

सफ़र..

सड़क के किनारे से गुजर रही थी,
खुद अपने से ही लड़ रही थी,
अचानक ध्यान किसी ने खीचा मेरा,
देखा बूढा पिता रो रहा था,
उसका बेटा अर्थी पे सो रहा था,
चंद आसू मेरे आये,
कुछ ना कर सकी, कदम आगे बढाए,
माँ लाड़ कर रही थी अपने बच्चे को,
अचानक छोटू (भिखारी) बोला " कुछ खाने को दे दे" ,
कहा उसने "आगे बढ़, छुट्टे नहीं है"
उसकी ममता का स्वांग उसी पल उतर गया,
मेरे जीवन में एक और नया रंग चढ़  गया,
अगले  नुक्कड़ बच्चे थे खेल में मग्न ,
कुछ कपड़ो में कुछ थे नग्न,
चंद पल मैंने भी कंचे खेले,
मेरे कपडे भी बच्चो से हुए मैले,
उस सफ़र ने जीवन के ढेरो रंग दिखा दिए,
कुछ मील की दूरी ने कई उत्तर मुझे दिए |

2 comments:

  1. really good ... मानवीय संवेदनाओ की अभिव्यक्ति

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  2. बहुत बहुत धन्यवाद |

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