Sunday, February 27, 2011

सिनेमा में दलित

भारतीय परिवेश के तमाम क्षेत्रों  के समान ही सिनेमा के क्षेत्र में भी दलितों की स्थिति निरीह एवं लाचार हैं. भारतीय सिनेमा का नजरिया भी दलितों के प्रति कुछ खास भिन्न नहीं है. दलितों के प्रति करूणा दिखाकर भारतीय फिल्म निर्माता एवं निर्देशक अछूत कन्या, आदमी, अछूत, सुजाता, बूटपालिश, अंकुर,सदगति, वेलकम तो सज्जनपुर, पीपली लाइव, आक्रोश, भीम गर्जना, और राजनीति जैसी फिल्मों का निर्माण तो किया हैं और इनमे से कुछ फिल्मो में दलितों को केंद्र में और कुछ में सहयोगी भूमिका में दलित के चरित्र को दर्शाया भी गया हैं परन्तु जिस गंभीरता और शिद्दत से दलित जाति के प्रश्न को उठाए जाने की जरूरत है, उस तरह से इन फिल्मो ने उसको नहीं उठाया गया हैं.

हिन्दी सिनेमा के कुछ ठोस यथार्थ हैं- नौकर का नाम दीनु या रामू ही होगा, बहुत होगा तो उसके नाम के साथ काका भी जोड़ दिया जाएगा. बेशक दलित यथार्थ हिन्दी सिनेमा में पर्याप्त जगह प्राप्त नहीं कर पाया है. भारत में प्रतिरोध का सिनेमा अनुपस्थित है, फिल्मों में असली भारत कम ही दिखता है, फिल्मों में काम करने वालों में भारत की विविधता नहीं दिखती.फिल्मों में दलित हमेशा लाचार ही होता है, जबकि पिछले तीन-चार दशक भारत के दलितों के लिए प्रतिरोध के दशक रहे हैं. दलित लगान में कचरा क्यों  होता है, दलित दिल्ली-6 की जमादारिन क्यों हैं, जिससे दुधमुंहे बच्चे कहते हैं कि तुम सबको बड़ा बनाती हो, हमें भी बड़ा बना दो. यह मजाक किसी पुजारिन के साथ भी तो किया जा सकता था, लेकिन नहीं, यह नहीं हो सकता.  इसके साथ ही हम सुजाता फिल्म की अछूत-दलित कन्या सुजाता की दयनीय चित्रण को कैसे भूल सकते हैं.फिल्म में सुजाता नाम की दलित कन्या चुप रहनेवाली, गुनी, सुशील और त्यागी ‘मैरिज-मैरिटल’ यानी सेविका बनी  है जबकि उसी परिवार-परिवेश की असली बेटी एक प्रतिभावान मंचीय नर्तकी, आधुनिका, वाचाल और अपनी मर्जी की इज्जत करनेवाली शख्सियत बनती है.  हमारी फिल्मे दलितों को सबल दिखाने में हमेशा ही परहेज करती आई हैं और उसका एक सशक्त उदाहरण प्रकाश झा की नयी फिल्म राजनीति में देखा जा सकता हैं. दलितों का नेता ‘सूरज’ (अजय देवगन), जो भरी सभा में सवर्णों और ऊंचे लोगों से लोहा लेता दिखाई देता है, आखिर वह भी उसी सवर्ण परिवार में जन्मा हुआ साबित होता है. अंततः फिल्म इसी परिपाटी पर लौट आती है कि दलितों का वह मसीहा इसी कारण से इतनी घाघ राजनीति कर सका क्यूंकि उसके अन्दर उसी राजनीतिक खानदान का खून था. फिल्म की कहानी का आधार कुछ भी रहा हो, लेकिन यह सत्य है कि फिल्म समाज की दलितों के प्रति इसी तस्वीर को पुष्ट करती है किसी दलित में स्वाभाविक रूप से वर्चस्ववादी लोगों का सामना करने का साहस ही नहीं है. हमारी फिल्मो में दलितों को सबल दिखाने से परहेज क्यों किया जाता हैं? भारतीय सवर्ण  दलितों से जितनी नफरत करते हैं, उतनी नफरत अमेरिका में अश्वेतों से भी नहीं की जाती.

सवाल दलितों पर फ़िल्में बनाने का नहीं है, सवाल ये है की वे जब परदे पर उतारे जाते हैं तो किस तरह का चरित्र उनमें उभारा जाता है. ज़रा सोचिये कि आत्म-बोध, आत्म-सम्मान, मनुष्यगत-अस्मिता, स्वाभिमान जैसे गुण उसमें क्यूँ नहीं होते? वह अपने तिरस्कार पर ख़ुद क्यों चीत्कार करता नहीं दिखता? वह अपने प्रति हर ज़्यादती-अत्याचार को आत्मसात करनेवाला ही क्यों है? उसकी ये छवि उसके असल जीवन में अत्याचारों के विरुद्ध उठाए प्रतिकारों-चीत्कारों को ख़ारिज करती है. उसके आत्म-सम्मान के संघर्ष को नकारती है.

जातिगत दृष्टिकोण और अन्याय का प्रतिकार करने वाली अभी तक की सबसे  सशक्त फिल्म बेंडिट क्वीन  ही दिखाई देती हैं जो साधारण दलित स्त्री से दस्यु सुंदरी और फिर फिर सांसद बनी फूलन देवी पर आधारित थी. इसके अलावा शायद ही कोई ऐसी फिल्म हैं जिसने दलित प्रश्न को ठीक ढंग से छुआ तक हो.

खैर..सिनेमा में दलित की स्थिति का वर्णन करने के बाद बस इतना ही कहना चाहूंगी की सिनेमा में दलित बहस का मुद्दा ना होकर सामाजिक व्यवस्था का एक महत्वपूर्ण अंग हैं और इसके लिए किसी बहस की ज़रुरत नहीं बल्कि सही मायनों में इसके उत्थान, विकास और सशक्तिकरण के लिए कुछ करने की ज़रुरत हैं. वैश्वीकरण और आधुनिकता की इस बयार  में हम सबको यही कोशिश करनी चाहिए की समाज में दलित समुदाय की पहचान की नयी चेतना जागृत कर सके और इनको  हर क्षेत्र में सशक्त पहचान  दिलाई जा सके.

( विभिन्न वेबसाइट्स पर मिली जानकारी से ये पोस्ट संभव हो पायी हैं.)

Friday, February 25, 2011

लिखना, लिखने से ही आता हैं



इन दिनों हमारे डिपार्टमेंट के सभी स्टुडेंट्स को लिखने की धुन सवार हैं. कोई भी कुछ भी लिख रहा हैं. कुछ बहुत अच्छा और गंभीर तो कुछ हल्का फुल्का लिख रहे हैं. पर मज़े की बात ये हैं की सभी लिख रहे हैं. स्टुडेंट्स की इस लिखने की कोशिश की शुरुवात करने के पीछे मुकुल सर की अहम भूमिका हैं. सर के इस दिखाए हुए रास्ते पर सभी स्टुडेंट्स चलने की पूरी कोशिश कर रहे है और वो भी हम सबकी पोस्ट को रेगुलर पढने और उसपर अपने सुझाव देने के अपने वादे को पूरी तरह निभा रहे हैं.

सभी के मन में ना जाने कितना कुछ चल रहा होता हैं पर उसको शब्दों में व्यक्त करना कितना मुश्किल काम हैं ये तभी महसूस होता हैं जब कुछ लिखने बैठो. जब कोई स्टुडेंट कुछ नया लिख कर पोस्ट करता हैं तो उसको सर के कमेन्ट का इंतज़ार ठीक वैसे ही रहता हैं जैसे किसानो को अपनी फसल के लिए बारिश का इंतज़ार रहता हैं. हर रोज़ कॉलेज में मिलने पर सभी एक दुसरे से एक ही बात पूछते मिलते हैं " यार तेरी पोस्ट पर सर का कमेन्ट आया? क्या लिखा सर ने? वगेरह वगेरह..." और अगर सर ने किसी पोस्ट पर कुछ बहुत अच्छा कमेन्ट किया तब तो वो स्टुडेंट तोताराम कैंटीन की चाय पूरी क्लास को पिलाता हैं. स्टुडेंट्स की अच्छे कमेन्ट पाने की यह ख़ुशी पहले बोर्ड एग्जाम में अच्छे नंबर पाने जैसी होती हैं. इस ख़ुशी के साथ ही साथ ज़िम्मेदारी होती हैं एक और बेहतरीन पोस्ट ब्लॉग पर डालने की और फिर से सर का उम्दा कमेन्ट पाने की.

पर इसके साथ साथ उन लोगो को भी नही भूला जा सकता जो सर के एक अच्छे कमेन्ट के लिए तरसते नज़र आते हैं और अपने पोस्ट पर उनके सुझाव पाने के बाद और कुछ अच्छा लिखने की कवायद शुरू कर देते हैं. बड़ी अजीब फीलिंग होती हैं जब कोई स्टुडेंट अपनी पूरी मेहनत से अपने अकोर्डिंग कुछ बहुत अच्छा लिख कर पोस्ट करे और वो सर को पसंद ना आये. एक पल के लिए तो ऐसा लगता हैं लिखने की पूरी मेहनत व्यर्थ हो गयी. फिर उसी पोस्ट पर दोस्तों के चाहे जितने भी अच्छे कमेन्ट आ जाए मन संतुष्ट नही होता. कनडिशन कुछ वैसी ही होती हैं जैसे कोई पेरेंट्स अपने बच्चे की बेहतरी के लिए उसे डाटे और उसका खराब मूड देख कर उसके दोस्त यार उसका दिल बहलाने की कोशिश करे. खैर..उस कमेन्ट का शोक कुछ ही पल का होता हैं वैसे भी हमें सिखाया गया हैं कि " ठण्ड और बेईज्ज़ती जितनी महसूस करो उतनी अधिक लगती है." इसलिए उस पोस्ट को ज्यादा फील करने का मतलब नहीं बनता.  मतलब बनता हैं उस कोशिश को ज़ारी रखने का क्योंकि लिखना, लिखने से ही आता हैं.

लिखने की इस रेस में सभी शामिल हैं. सभी स्टुडेंट्स दस्तक देते हुए बिंदास सोच कर कुछ अनकही तो कुछ बिंदास बोलने की  पहल कर चुके हैं. हर कोई अपने भाव-अनुभव को खूबसूरत शब्दों में पिरोने की पूरी कोशिश कर रहा हैं.  कभी किसी की माला बनती तो किसी के मोती बिखरते दिखते हैं.कोई इस समुन्द्र में डूबता तो कोई तैरता दिखता हैं, किसी की आशा का गुब्बारा फूलता तो किसी का पिचकता दिखता हैं. इन सभी आशाओं और निराशाओं के बीच जो बात सबसे अच्छी हैं वो हैं कि हम सभी स्टुडेंट्स इस दौड़ में शामिल हैं और अब चाहे हम जीते या हारे पर एक गम नहीं होगा के हमने कोशिश नहीं की.

इस कोशिश से पहले हम सभी एक ऐसी रेलगाड़ी के डिब्बे थे जिसमे इंजन ना होने के कारण वो एक ही जगह खड़ी हुई थी पर सर ने  इसमें इंजन फिट कर दिया हैं अब रेलगाड़ी ने चलना तो शुरू कर दिया हैं पर ये मंजिल पर पहुचेगी या बीच में ही पटरी से उतर जायेगी ये समय के साथ ही पता चलेगा. फिलहाल तो यह सफ़र बहुत सुहाना लग रहा हैं और हम सभी इस सफ़र की सुहानी यादो को अपने अपने ब्लॉग में पोस्ट करते (कैद करते) चल रहे हैं. कल हम जहाँ भी हो, पर जब भी हम अपने इस सफ़र को दुबारा जियेंगे, और अपने पोस्ट और सर के कमेंट्स को पढेंगे तो आँखों में नमी और होठो पर एक मीठी मुस्कान ज़रूर होगी और अगर हमारी गाड़ी पटरी से उतर भी गयी होगी तो सर की बात "लिखना, लिखने से ही आता हैं" फिर से लिखने की कोशिश करने के लिए प्रेरित कर देगी और हमारी यह लगातार कोशिश हम सबको भी अपनी अपनी मंजिलो पर ज़रूर पंहुचा देगी. जहाँ पहुंचकर हम भी कह सकेंगे की हाँ ! "लिखना, लिखने से ही आता हैं" .

Thursday, February 24, 2011

दोस्ती बड़ी ही हसीं हैं..

दोस्तों के साथ मुस्कुराना,
उदास हो वो तो हसाना,
बंक कर के कोरिडोर में बतियाना,
कैंटीन का  बिल उनके नाम बनवाना,
गर्लफ्रेंड  के नाम से उनको चिढाना,
बात बात पर उनको सताना,
जीतते चेस को हार जाना,
उनके लिए किसी से भी भिड़ जाना,
दिल के हर राज़ कह जाना,
गिले शिकवो का आंसुओ में बह जाना,
लेक्चर के बीच में पर्चिया बनाना,
पढ़ कर उनको ठहाके लगाना,
शैतानिया कर के उनको फंसाना,
क्लास से फिर बहार निकलवाना,
बहाना करके लू का,
खुद भी चलते लेक्चर को छोड़ जाना,
आते जाते टीचरस का मजाक उडाना,
पकडे जाने पर हसीं दबाना,
हर बात पर शर्त लगाना,
हारने पर मुकर जाना,
प्रोजेक्ट के नाम पर देर से घर जाना,
एग्जाम नाईट पर टापिक्स समझाना,
रिजल्ट आने पर
साथ में आंसू बहाना,
बर्थ-डे पर मुह पर केक लगाना,
बन्दर बन कर फिर फोटो खिचवाना,
बिछड़ने पर आंसुओ का गिर जाना,
"आँख में कंकर चला गया" बहाना लगाना,
दोस्त का फिर गले लग जाना,
दोस्त! तुमसे ही हैं ये सफ़र सुहाना,
दूर होकर हमको भूल ना जाना.

Sunday, February 20, 2011

प्रादेशिक फल, शाकभाजी एवं पुष्प प्रदर्शनी-२०११

लखनऊ, २१  फ़रवरी : राजभवन उद्यान में पिछले दो दिनों से चल रही प्रादेशिक फल, शाकभाजी एवं पुष्प प्रदर्शनी लखनऊवासियों के आकर्षण का केद्र बनी हुई थी. उद्यान के मध्य में सजे विभिन्न तरह के पुष्प और लगातार बजता मधुर संगीत लोगो के मन को खूब लुभा रहा था. प्रदर्शनी में प्रवेश टिकट मात्र ५ रूपये होने के कारण सभी वर्ग के लोगो ने  आसानी से इसका आनंद उठाया. पुलिस विभाग के श्री इन्द्रजीत सिंह रावत की देख रेख में सुरक्षा व्यवस्था चाक चौबंद थी. कल रविवार होने के कारण आगंतुको की संख्या अधिक थी. प्रदर्शनी में कैंटीन वा पीने के पानी की उचित व्यवस्था थी.
प्रदर्शनी में कुल ११३७ प्रतियोगियों ने ५१२८ पौधों का प्रदर्शन किया था. ४५ वर्गों में विभाजित प्रतियोगिताओं में राजभवन, मुख्यामंत्री  आवास, आर्मी, प.ए.सी, उत्तर प्रदेश रेलवे, एच.ए.एल, लखनऊ विकास प्राधिकरण, लखनऊ नगर निगम ने भाग लिया था. विजेताओं को कल राज्यपाल बी.एल.जोशी ने शील्ड, ट्राफी व कप सहित नगद पुरूस्कार देकर सम्मानित किया.
बायोटेक पार्क (लखनऊ), नरेन्द्र देव कृषि एवं प्रोद्योगिक विश्वविद्यालय (फैजाबाद), धन्वन्तरी वाटिका राजभवन, राज्य ओद्योगिक मिशन (उ.प्र), भारतीय सब्जी अनुसंधान संस्थान (वाराणसी), उद्यान एवं खाद्य प्रसंस्करण विभाग (उ.प्र), केंद्रीय आलू अनुसंधान संस्थान (मेरठ), राष्ट्रीय वनस्पति अनुसंधान संस्थान (लखनऊ)  ने प्रदर्शनी में अपने अपने स्टाल्स लगा रखे थे. प्रत्येक स्टाल का अपना ही महत्व था. नरेन्द्र देव (फैजाबाद) स्टाल पर ६ फीट की लौकी को देखने वालो की भीड़ जमा थी. सब्जियों की अलग अलग प्राजातियों जैसे- सफ़ेद आलू, लाल आलू, गाजर देसी, गाजर विलायती, हाइब्रिड शाकभाजी के बारे में भी लोगो ने जानकारी ली.कोई स्टाल कृषि विविधिकरण परियोजनाओं के विषय में जानकारी दे रहा था तो कुछ स्टाल्स पर लोग  फूलो, फलो वा सब्जियों (मूली, बैंगन,खरबूजा,भिन्डी) की वैज्ञानिक विधियों से खेती एवं उनके भंडारण वा सुरक्षण की जानकारी लेते दिखे. कुछ आगंतुको का रुझान आयुर्वेदिक जड़ी बूटियों की जानकारी लेने की ओर था.

सब्जियों द्वारा निर्मित आकृति से दिया गया सन्देश 
"घड़ियाल बचाओ" 
शाक, भाजी, तरकारी द्वारा विभिन्न प्रकार की श्रेष्ठ आकृतियों की रचना कर के जो सन्देश जनता को दिया गया वो अत्यंत सराहनीय था.  इन आकृतियों द्वारा "नो मोर एड्स", "माँ सरस्वती का श्रृंगार करता बसंत", "अमन की आशा", मेरा भारत महान", "पेड़ बचाओ", "ग्रामीण भारत", "छोटा परिवार ,सुखी परिवार", "सर्वधर्म समभाव", "पृथ्वी बचाओ", "उड़ना मुझसे सीखो", "कागज़ का थैला इस्तेमाल करो", "आतंकवाद ख़त्म करो", "घड़ियाल बचाओ" जैसे सन्देश देकर जनता को जागरूक करने का प्रयत्त्न किया गया.जिला कारागार, रायबरेली द्वारा ५४ सब्जियों की मिश्रित डाली की आकृति आगंतुको को अपनी ओर आकर्षित कर रही थी.

अलग अलग प्रकार के फूलो ने अलग ही  छटा बिखेर रखी थी.फूलो की विभिन्न दुर्लभ प्रजातियाँ 
पुष्प सिनरेरिया के समूह के पास फोटो
 खिचवाती आगंतुक
उबलब्ध थी.फ्लास्क, वेनेडियम, मेरीगोल्ड अफ्रीकन, लैनेरिया, कारनेशन, लयूपिन, लाईनम, जिप्सोकिल फूल देखने में बहुत ही मनमोहक लग रहे थे. फूलो की सुरक्षा के लिए जगह जगह पर माली बैठे थे. राष्ट्रीय उद्यान की तरफ से छोटे एवं बड़े इमामबाड़े के पुष्प सिनरेरिया को समूह में कलात्मक ढंग से ३ मीटर व्यास में सजाया गया था. सिनरेरिया के समूह के पास आगंतुको ने फोटो खिचवाई. गुलाब की अलग अलग प्रजातियाँ, प्रतियोगिता के लिए केले की छाल वा रंग बिरंगे फूलो से सजे मंडप, मौसमी फूल वा मंजू वर्मा द्वारा लगी सब्जियां लोगो को खूब लुभा रही थी. इतने खूबसूरत पारिदृश्य के साथ साथ उद्यान में चलता फव्वारा इसकी खूबसूरती को दुगना कर रहा था.

बाहर की तरफ लगे व्यावसायिक स्टाल्स पर लोगो ने जम कर खाद, फूलो वा सब्जियों के गमलो की खरीददारी की. आगंतुक राम मनोहर ने कहा की "सब्जी वा तरकारी द्वारा लोगो को जो सन्देश देने का जो तरीका है वो उनको बहुत भाया."  प्लांट साइंस की छात्रा राधिका ने कहा " मुझे यहाँ पर आकर अपने विषय से सम्बंधित कई बाते जानने को मिली."  चंद फल और सब्जियों द्वारा दिए जाने वाले सन्देश इस बात को दर्शाता दिखा की हमारे देश में सुधार की कितनी अधिक आवश्यकता हैं. दो दिन तक चली इस प्रदर्शनी ने समाज सुधार सम्बंधित सन्देश देते हुए बच्चो, युवाओ वा बुजुर्गो को खूब लुभाया. 

Saturday, February 19, 2011

दिल में एक ऐसा भाव हैं,
जिसे कहते ही आँखें हो जाती हैं नम,
दूरियां भी देती हैं तकलीफ,
पास होता हैं केवल गम,
मिल के बिछड़ना  क्यूँ होता हैं?
चाह के भी मिलना क्यूँ नहीं होता?
कल जो साथ था,
वो आज दूर हैं,
जानती हूँ की फिर मिलना ज़रूर हैं,
साथ हैं हमेशा दिल ये जानता हैं,
पर दूरी की तकलीफ भी
यहीं पहचानता हैं,
चेहरा जिसका रोज़ देखने की आस हो,
लगे जैसे पास उसके सारे एहसास हो,
कम वक़्त में कुछ रिश्ते,
यूँ गहरे बन जाते हैं,
सदियों के रिश्ते भी,
फीके नज़र आते हैं.

Tuesday, February 15, 2011

हर एहसास प्यार हैं

दुनिया में चारो तरफ प्यार हैं,
आईने में देखकर मुस्कुराना प्यार हैं,
माँ के आँचल की ममता प्यार हैं,
पिता की डाट प्यार हैं,
भाई का दुलार प्यार हैं,
दोस्तों का साथ प्यार हैं,
बहन का ख्याल प्यार हैं,
आँगन में बैठी चिड़िया प्यार हैं,
खिलते  फूल में  प्यार हैं,
किताब में रक्खे सूखे गुलाब में  प्यार हैं,
बारिश की बूंदे प्यार हैं,
संगीत में  प्यार हैं,
हवा की बहार में  प्यार हैं,
नदी की बहती धार में  प्यार हैं,
दुआ में प्यार हैं,
हसीं में प्यार हैं,
अश्क में प्यार हैं,
ओस की बूँद में प्यार हैं,
पेड़ की छाव में प्यार हैं,
सूरज की रौशनी में प्यार हैं,
रात के ख्वाब में प्यार हैं,
हर एहसास जो अपना हैं,प्यार हैं.

काश वक़्त को पीछे मोड़ पाते

काश वक़्त को पीछे मोड़ पाते,
छूटे रिश्तो को वापस जोड़ पाते,
छोटी - छोटी खुशियों का वो जहाँ,
आस-पास दिखता है अब कहाँ?
बिन बात का वो मुस्कुराना,
हर घडी दोस्तों का सताना,
ना कुछ सुनना, न सुनाना,
बस पापा से अपनी जिद मनवाना,
वो रात भर जाग कर पढना,
भाई से बे-मतलब लड़ना,
कभी घुटने कभी कोहनी का छिलना,
फिर भी होता था गैंग से मिलना,
उन यादो का यूँ गुदगुदाना,
दिल का यह यूँ कह जाना,
काश वक़्त को पीछे मोड़ पाते,
छूटे रिश्तो को वापस जोड़ पाते.

Monday, February 14, 2011

शायद यही हैं प्यार

प्यार क्या होता हैं?
प्यार क्यूँ होता हैं?
प्यार कैसे होता हैं?
प्यार कब और किससे होता हैं?
क्या परिभाषा हैं इसकी?
या परिभाषा रहित हैं प्यार?
कुछ समझ में नही आता,
जो समझ में आता हैं वो हैं
किसी की हँसी में आपकी ख़ुशी,
किसी के गम में आपका साथ,
आपकी दुआ में उसका होना,
आपके जीवन में उसका एहसास,
एक मीठा, नि:स्वार्थ भाव,
जिसके होने इस अन्धकार रौशनी लगे,
जिसकी आवाज़ भरी महफ़िल में भी
स्पष्ट सुनाई पड़े,
जिसके होने से खुद के होने का एहसास हो,
जिसकी एक आवाज़ से आप जीवन जी जाए,
जिसके छूने से मृत्यु का भय भी दूर हो जाए,
शायद यही हैं प्यार !!!

क्या यहीं प्यार हैं

आज हृदय में कुछ ऐसे भाव उठते हैं,
जिन्हें महसूस करते ही,
पलक झपक जाती हैं,
शर्म सी आ जाती हैं,
बेठे बेठे यकायक
खिलखिलाने लगती हूँ,
अपने बालो को खुद ही
सहलाने लगती हूँ,
खिड़की पर खड़े होकर
चाँद से बातें करती हूँ,
उसे खोने के एहसास से डरती हूँ,
जानती हूँ कि पाया नहीं है उसको,
पर अनजान नहीं हैं
क्योंकि स्वयं को दे दिया उसको,
मैंने तो उसे अपना मान लिया,
नहीं कहती कि उसने मुझे जान लिया,
मेरा तो यह निस्वार्थ भाव हैं,
शायद उस भाव का उसमे अभाव हैं,
पर विश्वास हैं मुझे अपने भावनाओं पर,
यह स्वच्छ हैं,
अछूती है वासनाओं से,
मेरे अंतर:मन को पता हैं
वह स्वयं आगे बढेगा,
मेरे कुछ कहने से पहले
अपने शब्द गढ़ेगा,
उस वक़्त मैं अपने
समस्त भाव उसे कह दूंगी,
हमारा आजीवन तक का साथ हैं,
यह विश्वास उसे दे दूंगी.

Thursday, February 10, 2011

पहचान तो आखिर पहचान होती हैं..

आज के समय में पहचान की जरूरत तो सभी को होती हैं. वह पहचान चाहे किसी अच्छे काम से मिले या बुरे काम से. बस पहचान मिलनी चाहिए. यह बात तो आज भारत देश की आम जनता भी मानने से इनकार नही करेगी की जिस तरह से हमारा देश,विश्व में अपनी अलग पहचान बना रहा हैं वह कोई आसान काम नही हैं. आज चारो ओर हमारे देश और उसको चलाने वालो या कहे घसीटने वालो की चर्चा हो रही हैं.
 
 
कई महान व्यक्तित्वों ने देश का नाम रोशन किया हैं और जिस तरह से आम जनता उनके इस कारनामो से शांत हैं उससे ऐसा लगता हैं की वो उन महान व्यक्तित्वों के प्रति कृतज्ञ हैं. यह तो मेरा मानना हैं, यह भी हो सकता हैं की यह जनता की मूर्खता हो या फिर गूंगापन हो. खैर...मुद्दा तो देश को सफेदी की जो चमकार मिल रही है उसका हैं इतनी चमकदार सफेदी तो शायद रिन साबुन भी कपड़ो को नहीं दे पाती होगी.
 
 
देश के प्रति कई लोगो ने अपने कर्तव्यों का पूर्ण निर्वाह किया हैं जैसे - सुरेश कलमाड़ी, ए.राजा, मनमोहन सिंह, अशोक चव्हाण, येदुरप्पा और ना जाने कितने ही ऐसी हस्तिया हैं जो देश को विश्व प्रसिद्द बनाने में कोई कसर नही छोड़ रही हैं. इन हस्तियों ने तो फिर भी अपने नाम जनता के सामने पेश हो जाने दिए ऐसे न जाने कितने ही महान लोग होंगे जो देश को चमकाने के बावजूद भी अपना नाम उजागर नहीं कर रहे होंगे. अरे!! वही तो हैं जो सही मायनों में महान हैं या कहे भगवान् हैं. काम तो बड़े बड़े कर रहे हैं पर अपने दर्शन नहीं देते हैं. वो तो कुछ तकनीकी खराबी (बढती मीडिया तकनीक) के कारण उनके नाम प्रकट हो जाते हैं. इन सभी ने देश को खूब चमकाया, कभी राष्ट्रमंडल खेलो के दौरान, कभी भूमि के आबंटन के नाम पर, कभी मोबाइल तकनीक (२-जी स्पेक्ट्रम) के ज़रिये,कभी देश के धन को विदेशी बैंको ( काला धन मामला) को देकर,कभी जनता को आरामदेह ज़िन्दगी ( बेरोज़गारी) देकर,कभी महान व्यक्तित्वों ( थामस) को उच्च पदों पर नियुक्त कर के. यह तो बहुत छोटी सी लिस्ट हैं, महान नामो के साथ ही ऐसे ही ना जाने कितने महान कारनामे जनता से छुपाये जा रहे होंगे. यह तो हम लोगो को उस तकनीकी खराबी को शुक्रिया अदा करना चाहिए जिसके चलते देश को चलाने वाले कुछ भगवानो और उनके कारनामो को उजागर किया जा रहा हैं.
 
 
पर एक बात तो तय हैं की यह भगवान् इसी तरह रिन साबुन देश को चमकाने के लिए घिसते रहे तो देश चमकते-चमकते फटीचर हो जाएगा. पर क्या हुआ...देश को विश्व में पहचान तो मिलेगी क्योंकि पहचान तो आखिर पहचान होती हैं.

Wednesday, February 9, 2011

बस कुछ लिखने के लिए...

अब सर की दी हुई प्रेरणा से हर रोज़ कुछ न कुछ लिखने का मन करता हैं. भले ही जैसा भी लिखू बस लिखू. एक आस होती हैं के कुछ लिख जाऊ. अब जब पछले ३-४ दिनों से ये आशा बरकरार है तो यह एहसास हो रहा हैं की लिखने का भी अपना मज़ा हैं. लिखने के बाद जब पढो तो लगता है की जिंदगी के कितने पहलु ऐसे हैं जो लिखते वक़्त तो लिख जाओ पर कभी यूँ बैठ कर उन पहलुओ पर विचार ही नहीं किया.
दिल तो बच्चा है जी, तो बस आज बैठे बैठे यूँ ही अपने मोबाइल से खुद के नंबर पर कॉल लगा रही थी और नंबर व्यस्त बता रहा था तभी मन में एक ख्याल कौंधा के मेरा नंबर हैं औरो को तो एक झटके में मिल जाता हैं  और मेरे लिए ही व्यस्त हैं. जिंदगी भी कुछ ऐसी ही हो गयी हैं, इधर उधर की व्यस्तताओं में अपनी जिंदगी के लिए तो वक़्त ही नहीं मिलता. अकेले में बैठ कर खुद से बातें किये हुए तो एक ज़माना हो गया हैं. अपने बारे में सोच ही रही थी की अचनाक फिर कोई और उस पर हावी हो गया. क्या करे, मन इतना चंचल जो हैं. ख्याल आया की कुछ दिनों में वेलेनटाइन डे आने वाला हैं और मुझे भी इस दिन को मनाने के लिए वेलेनटाइन चाहिए. अपने इस ख्याल को पूरा संजो भी नहीं पायी  थी की अचानक अगला ख्याल मन में कूदने लगा. ऐसा लगा जैसे एक ख्याल के साथ ख्यालो का ढेर मुफ्त. वेलेनटाइन डे तो बाद में मनाउंगी पहले पढाई तो कर लू. कुछ समय बाद एग्जाम  हैं. फिर ख्याल आया के इस एग्जाम के चक्कर में पढ़ कर ज़िन्दगी के एग्जाम को कैसे भूल जाऊ. इस ज़िन्दगी के एग्जाम का ना तो कोई फिक्स्ड सिलेबस होता हैं और ना ही  परीक्षा के तारीख तय होती हैं.  ये तो हर घडी अपना रूप बदलती हैं. कभी धूप तो कभी छाव, कभी दिन तो कभी रात.
इतना भारी भरकम सोचते ही अगला ख्याल आया की क्यों ज़िन्दगी में इतनी तकलीफे उठाई जाए आखिरकार तो मरना ही हैं. फिर वही घिसे पिटे सवाल मन में उठे. मेरे मरने के बाद क्या कोई मुझको याद करेगा? करेगा तो क्यूँ करेगा, वगेरह वगेरह...
फिर सोचा................................................
फिर कुछ नहीं सोच पाई....
बस आज इतने ही ऊट-पटांग ख्याल मन में आये.अगली बार जब और भी ऐसे ख्याल आयेंगे तो फिर से उनको शब्दों में संजोने की कोशिश करुँगी.

Monday, February 7, 2011

पुस्तक प्रेमियों को लुभाता पुस्तक मेला

लखनऊ, ७ फरवरी : "नेशनल बुक ट्रस्ट" दिल्ली द्वारा उत्तर प्रदेश भाषा संस्थान और लखनऊ विश्वविद्यालय  वा जिला प्रशासन के सहयोग से लखनऊ विश्वविद्यालय के टेनिस मैदान में आयोजित पुस्तक मेला पुस्तक प्रेमियों के आकर्षण का केंद्र बना हुआ हैं. इसका उदघाटन शनिवार ५ फरवरी को भाषा संस्थान के कार्यकारी अध्यक्ष गोपाल चतुर्वेदी, साहित्यकार प्रो. बैजनाथ सिंह, लविवि के हिंदी विभाग की पूर्व अध्यक्ष  डॉ. सरला शुक्ला और समाजशास्त्र विभाग के प्रमुख डॉ. ए. एन. सिंह ने दीप जला कर किया. इस पुस्तक मेले में प्रवेश निशुल्क हैं. पुस्तक मेले में स्थानीय तथा देश भर के ११५ प्रकाशको ने हिस्सा लिया हैं और किताबो के १६२ स्टाल लगे हैं.


विरचुअस पब्लिकेशन:सबसे अधिक बच्चो की पसंद

स्टाल्स पर प्रदर्शित नयी एवं पुरानी पुस्तकों से पुस्तक प्रेमी ना केवल रूबरू हो रहे हैं बल्कि अपनी पसंद की पुस्तके भारी तादाद में चुन और खरीद रहे हैं. मेले में खरीददारो की संख्या को देख कर इस बात का अंदाजा लगाया जा सकता है कि इंटरनेट और ई-बुक्स के चलन के बावजूद भी हाथो में पुस्तक को पकड़ कर पढने का शौक आज भी लोगो में व्याप्त हैं. पुस्तक मेले में जिन प्रकाशको और पुस्तक विक्रेताओं की सक्रिय भागीदारी  हैं उनमे- गौतम बुक सेन्टर, पुस्तक महल, राकेश बुक एजेंसी, नंदा बुक सर्विस, जनचेतना, अक्स-ओ-आवाज़, आर्य प्रकाशन, पदम् बुक कम्पनी, विरचुअस पब्लिकेशन, मर्कानी मक्तबा इस्लामी पब्लिशर, संस्कृति संस्थान, राजा बुक्सप्रभात प्रकाशन, सामयिक प्रकाशन, राजकमल प्रकाशन नेशनल बुक ट्रस्ट हैं.

नेशनल बुक ट्रस्ट देश भर में पुस्तक मेलो का आयोजन करता आया है. इसका गठन जवाहर लाल नेहरु ने पुस्तकों को बढ़ावा देने के लिए किया था. सभी स्टाल्स पर अलग अलग विषयों पर विविधतापूर्ण किताबे हिंदी, अंग्रेजी वा उर्दू भाषा में उपलब्ध हैं. कोर्स से सम्बंधित किताबे, वेद, पुराण, कुरआन, कविताएं, कहानी संग्रह, विज्ञान एवं वातावरण से सम्बंधित किताबे, महापुरुषो के जीवन से सम्बंधित किताबे, रामायण, महाभारत, प्रेरणादायक पुस्तके उपलब्ध हैं. पुस्तक विक्रेता मेले की सुरक्षा व्यवस्था के इंतज़ाम से संतुष्ट दिखे.

नंदा बुक स्टाल के संजय कुमार कहते हैं " लखनऊ की जनता में किताबो के प्रति जो लगाव दिख रहा है वह बेहद सरहानीय हैं. मुझे अपने बुक स्टाल पर अच्छा रिस्पोंस मिल रहा है. मैं इस पुस्तक मेले का हिस्सा बन कर बहुत खुश हूँ." 
विक्रेता एजाज हसन कहते है "वह व्यवस्था से संतुष्ट नहीं हैं. सूखी मिटटी के मैदान में कालीन ना  बिछे होने के कारण धुल मिट्टी स्टाल्स को गन्दा कर रही हैं और इससे मेले की शोभा भी कम हो रही हैं साथ ही कैंटीन की कोई उचित व्यवस्था न होने के कारण काफी दिक्कत हो रही हैं."

अपनी पसंद की किताबे  छाटते खरीददार
मेले में हर वर्ग के पुस्तक प्रेमियों की भारी तादाद से मेले की रौनक बढ़ी हुई हैं. छोटे बच्चे कामिक्स,कहानिया और कलर बुक्स खरीदने के इच्छुक दिखे. वही युवा वर्ग में चेतन भगत के उपन्यास, स्वतंत्रता सेनानियों की जानकारियों से सम्बंधित किताबे, जे.के रौलिंग की किताबो, और विश्व के सफल व्यक्तित्वों की आत्मकथाए  जैसे बराक ओबामा की आत्मकथा द ऑडिसिटी ऑफ होप, महात्मा गांधी की आत्मकथा सत्य के साथ मेरे प्रयोग, अब्राहम लिंकन, डॉ. राजेंद्र प्रसाद, डॉ. भीमराव अंबेडकर, हरिवंश राय बच्चन और मदर टेरेसा की आत्मकथा से सम्बंधित किताबो की मांग देखने को मिली.

दसवी कक्षा की आकांक्षा ने कहा " मैं इस पुस्तक मेले में आकर बहुत खुश हूँ क्योंकि मुझे कई अंग्रेजी की किताबे १०% की छूट के साथ हिंदी में आसानी से मिल गयी."
किताब के अन्दर वा बाहर छपे दाम
इस मेले में प्रेमी युवा जोड़ो की भीड़ मेले की रौनक को बढ़ा रही हैं. मेले में आये शोभित कहते है " इस वेलेनटाइन वीक में वो अपनी गर्लफ्रेंड के लिए कुछ लव स्टोरीस खरीदने की चाह को इस मेले में आसानी से पूरा कर रहे हैं."
गौतम बुक सेन्टर पर आये सौरभ थोड़े परेशान दिखे उन्होंने कहा " किताबो के अन्दर कम दाम छपे है लेकिन किताबो के पीछे अधिक दाम की स्लिप चिपका रखी गयी हैं."
नेशनल बुक ट्रस्ट के सहायक निदेशक मयंक सुरोलिया ने बताया की मेले में ९, १०, ११ फरवरी को  सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन होगा. १३ फरवरी तक चलने वाले इस पुस्तक मेले में आप भी सुबह १० से शाम ८ बजे तक अपनी उपस्थिति दर्ज करा कर किताबो का आनंद ले सकते हैं.

Wednesday, February 2, 2011

कल रात का ख्वाब

आज सुबह जब सो कर उठी सब कुछ हर रोज़ जैसा था. वही सूरज, वही चिडियों की चहक, वही माँ के हाथ की बनी हुई गरम गरम चाय और  वही मैं. कुछ बदला था तो वह थी मेरे आँखों की चमक. हर रोज़ सुबह उठने पर आँखों में कुछ पाने के सपने होते थे,ज़िन्दगी में आगे बढ़ने की ललक होती थी पर आज जब उठी तो आँखों में नमी थी, कुछ बुरे ख्वाबो का दर्द था.
 
एक ख्वाब जिसने मेरे जीवन की एक खूबसूरत सुबह को खराब कर दिया और साथ ही साथ मुझे उस ख्वाब को हकीकत ना बनने देने की ओर आगे बढ़ा दिया सबकी तरह मेरी ज़िन्दगी के भी कुछ सपने हैं जिनको मुझे पूरा करना हैं. पर कल रात के ख्वाब में मैंने देखा की मैं अपनी ज़िन्दगी का कोई भी सपना सच नही कर पायी. मैं ज़िन्दगी में सब कुछ हार के एक समुन्द्र के किनारे तन्हा खड़ी हूँ. जहाँ कोई मुझे नहीं पहचानता, जहाँ सिर्फ मेरे साथ मेरी हार हैं.
 
इस सपने ने मुझे अपने बारे में सोचने पर मजबूर किया. ये सोचने पर मजबूर की जिन सपनो को मैं सच करना चाहती हूँ उनके सिर्फ ख्वाबो में अधूरे रहने से जब इतनी तकलीफ हो रही हैं तो अगर कहीं ऐसा हकीकत में हुआ तो वह वेदना कितनी अधिक होगी.
 
इस ख्वाब के बाद कई बातो का एहसास हुआ. लगा की क्यूँ मैं अपने क्लास को बंक कर के कैंटीन जाती हूँ, क्यूँ लाइब्रेरी में जाने वाले समय में दोस्तों के साथ तफरी करती हूँ, जब मैं देर रात तक जग कर पढाई नहीं कर पाती तो कैसे मैं देर रात तक दोस्तों से फ़ोन पर बात करती हूँ, क्यूँ जो एक आध घंटा मैं पढने का सोचती हूँ उस समय कहीं ना कहीं किसी काम से चली जाती हूँ, क्यूँ मेरा खुद पर कोई नियंत्रण नहीं हैं?
 
जवाब में कुछ अगर पा रही थी तो वो बस इतना की मैंने अपने और अपने सपनो को कभी केंद्र में रखा ही नहीं. कहने को तो मेरे पास सपने हैं पर उनको हकीकत में बदलने का जूनून हैं ही नहीं. मुझे खुद के सपनो को हकीकत में बदलने से ज़्यादा अपनी ज़िन्दगी को बईमानी खुशिया देने में मज़ा आ रहा हैं. मैं अगर कुछ समय के लिए अपनी ज़िन्दगी पूरी तरह से अपने सपनो को हकीकत बनाने के लिए सोचूं  तो उसके साथ साथ जो छोटी रूकावटे दिखती है वो इतना डरा देती हैं की मैं इस ओर सोचती ही नहीं और वापस अपनी बिन मतलब की ज़िन्दगी में मशगूल हो जाती हूँ.
 
पर अब यह एहसास हो गया की मेरी ज़िन्दगी इन चंद बईमानी खुशियों की मोहताज नहीं बल्कि मेरी ज़िन्दगी मेरे सपनो को हकीकत में बदलने का ज़रिया हैं. एक रात का ख्वाब जब इतनी तकलीफ दे सकता हैं तो क्यूँ मैं उस तकलीफ को अपनी असल ज़िन्दगी में बर्दाश्त करूँ.
 
मेरी ज़िन्दगी मेरी अपनी हैं और मैं इसे और चीज़ों से नियंत्रित नहीं होने दूंगी अब मेरे इर्द गिर्द की चीज़ों को मुझे अपने हिसाब से नियंत्रित करना हैं और अपने सपनो को  हकीकत में बदल कर अपने जीवन को साकार करना हैं. 

Tuesday, February 1, 2011

अकेली कहाँ हूँ मैं?

अकेली कहाँ हूँ मैं?
तन्हाई हैं ना मेरी,
वफ़ा निभाती हैं,
प्यार जताती हैं,
हसांती हैं,
रुलाती हैं,
बतियाती हैं,
एहसास बाटती हैं,
क्यूँ साथ मांगू किसी का?
क्यूँ किसी को गले लगाऊ?
क्यूँ प्यार को नुमाइश बनाऊ?
प्यार हैं ना मेरी तन्हाई,
अकेली कहाँ हूँ मैं?

बिखरना नहीं चाहती मैं..

कभी पिघलता है मन,
नम होती हैं आँखें,
हसीं ठहरती हैं लबो पर,
दिल घबराने लगता हैं,
कोई तो थामे मुझे,
मैं बिखर जाउंगी,
खो जाउंगी,
विलीन हो जाउंगी,
हवा जैसे भी,
महसूस नही हो पाऊँगी,
बिखरना नहीं चाहती मैं,
संभलना है मुझे,
बढ़ना है मुझे,
मंजिल पर पहुंचना  हैं,
जब गिरुं,
सामने शक्ति हो,
कहे उठो, चलो, चलती जाओ,
चाहे लड़खड़ाओ,
या घबराओ,
बढ़ना हैं तुम्हे,
मैं उठ जाउंगी,
काटें पर भी चलती जाउंगी,
पर वो शक्ति तो हो,
जो संभाले मुझे,
बिखरना नहीं चाहती मैं,
संभलना है मुझे,
चलना है मुझे,
मंजिल पर पहुंचना हैं.