Sunday, March 27, 2011

मुस्कुराइए की आप लखनऊ में हैं


लखनऊ शहर की अपनी खास नज़ाकत और तहजीब वाली बहुसांस्कृतिक खूबी, दशहरी आम के बाग़ों, चिकन की कढ़ाई के काम, यहाँ की एतिहासिक इमारतो के बारे में खूब सुना था पर इस शहरको करीब से जानने का मौका कल मिला. कल मैं अपने सभी दोस्तों के साथ उ. प्र. के टूरिज्म विभाग की ओर से संचालित लखनऊ हेरिटेज वाक के ज़रिये लखनऊ को करीब से जानने निकली, इस वाक के जरिये लखनऊ को बहुत करीब से जानने और इस शहर के साथ अपनी पहचान बनाने का मौका मिला.

हम सबका ये शानदार सफ़र उस टीले वाली मस्जिद से शुरू हुआ जिसे सन १७७५ इ  में नवाब आसिफ अली ने बनवाई थी. ये मस्जिद शहर की सबसे ऊँची जगह पर बनी हुई है और शहर की सबसे ऊँची इमारतों में से एक हैं.इस मस्जिद के पास बहती हुई गोमती नदी के इतिहास से रू-बा-रू करते हुए हमारे गाइड नवेद, आतिफ और इमरान हाश्मी जी हम सबको लखनऊ की शान इमामबाडा की ओर ले गए. यह एतिहासिक इमारत शांत होते हुए भी बहुत कुछ बयाँ कर रही थी. इसकी खूबसूरती मनमोहक थी. फिर इमामबाड़े से निकलते हुए हम सब पहलवान ठंडाई की दुकान पर पहुचे. वह दुकान के मालिक ने बताया की ये दुकान पिछले १०० सालो से चल रही है. इस दुकान की बेहतरीन ठंडाई का आनंद हम सबने लिया और फिर यहाँ से सबने मंदिर की ओर रुख किया. फिर मंदिर में दर्शन करने के बाद यूनानी अस्पताल की बदहाल इमारत को देखने और इस के इतिहास को जानने का मौका मिला. यूनानी अस्पताल के एक तरफ फरंगी कोठी थी जिसके बारे में हमारे गाइड ने बताया की ये जगह नवाब वाजिद अली ने फिरंगियों को दे दी थी और यहाँ फारस के लोग रहते थे इसलिए इसे फरंगी कोठी कहते हैं.

यहाँ से आगे बढ़ते हुए हम लोग फूल वाली गली पहुचे. वहाँ की दुकानों पर बिखरे हुए फूल बहुत ही खूबसूरत दिख रहे थे और उनकी शानदार महक पूरी गली को महका रही थी. हमारे साथ जो गाइड थे वो हम सबको पुराने लखनऊ की तंग गलियों का सफ़र करा रहे थे और साथ ही उन गलियों में बने घरो और इमारतो के इतिहास को बता रहे थे. हमारे गाइड ने हमें रूमी दरवाज़ा, इमामबाड़ा, मच्छी भवन, दौलत खाना, चौक बाज़ार, लाल पुल सबका इतिहास बता कर हमें हमारे लखनऊ की खूबसूरती से रू-बा-रू कराया.

लखनऊ की तमाम खूबसूरत इमारतो के बारे में जानने के बाद हम सब अपनी पेट-पूजा के लिए पुराने लखनऊ के मशहूर होटल रहीम की और रुख किया और वहाँ के लज़ीज़ व्यंजनों के  स्वाद का आनंद लिया. इसके बाद सबने राधे लाल की स्वादिष्ट लस्सी का आनंद लिया. इस तरह ये खूबसूरत सफ़र हम सबके दिलो में एक याद की तरहा बस गया. अगर हम इस हेरिटेज वाक के लिए न गए होते तो शायद हम अपने लखनऊ की इस खूबसूरती को इतने करीब से कभी नहीं जान पाते. लखनऊ को इतने करीब से जानने के बाद एक मंद मुस्कराहट मैंने सभी दोस्तों के चेहरे पर देखी और इस पूरी विसिट के बाद मुझे ये लाइन जो लखनऊ में जगह जगह लिखी है  "मुस्कुराइए की आप लखनऊ में हैं" सार्थक होती दिखी.

Friday, March 25, 2011

समझ ना आये रास्ता क्या हैं?
ज़िन्दगी से मेरा वास्ता क्या हैं?
कभी लगाती हूँ ठहाके, कभी हर तरफ गम हैं,
इस कश-म-कश में मेरी आँखे नम हैं,
कभी वक़्त ठहरा सा लगता हैं,
कभी अनजान पहरा सा लगता हैं,
टूटने की खनक गूंजती है कानो में,
बिखरी तस्वीर हैं मेरी अलग अलग इंसानों में,
खोजती हूँ खुद को इस पहचान में,
पाती हूँ फिर भी खुद को अनजान मैं,
समझ ना आये रास्ता क्या हैं?
ज़िन्दगी से मेरा वास्ता क्या हैं?

Thursday, March 24, 2011

सागर की लहर एक खेल हैं,
क्या किनारों से टकरा कर चोटिल नही होती?

आँखों को काजल सजाता हैं,
क्या सजी आँखें बोझिल  नहीं होती?

चेहरा अगर सूखा है,
क्या रूमाल अश्को से भीगा नहीं होता?

जो चोट दिखती हैं दवा है उसकी,
क्या अदृश्य चोट  का मरहम नहीं होता?

Wednesday, March 16, 2011

फेसबुक का चस्का


चस्का चस्का........लगा हैं चस्का चस्का....अरे भाई! मैं बदमाश कम्पनी के गाने को गुनगुनाने के मूड में नहीं हूँ, ये तो मैं उन लोगो के बारे में बात कर रही हूँ जिनको फेसबुक का चस्का लगा हैं. फेसबुक  को इस्तेमाल करने वालो की संख्या जितनी तेज़ गति से बढ़ रही हैं उससे देख कर तो लगता हैं की आने वाले कुछ समय में इन्टरनेट को भी फेसबुक के नाम से जाना जायेगा. आज हर उम्र के लोग फेसबुक से जुड़े हुए हैं. चाहे युवा हो या बुजुर्ग, सबको ही ये सोशल नेटवर्किंग साईट खूब लुभा रही हैं.

लोग एक दूसरे के स्टेटस को लाइक  करते हैं, उसपर कमेन्ट करते हैं, अपने स्टेटस को अपडेट करते हैं, वगेरह वगेरह....तमाम तरह के ऐप्लीकेशंस हैं जिनको इस्तेमाल करके वो घंटो फेसबुक पर बिताते हैं. कुछ समझदार लोग फेसबुक का सकारात्मक इस्तेमाल करते हैं, जैसे- अपनी लिखी किताबो,ब्लोग्स का प्रचार करना, किसी सामाजिक मुद्दे पर लोगो की राय जानना, सामाजिक समस्याओं को दूर करने के लिए चलाये गये मुहिम से लोगो को जोड़ना, वगेरह....और कुछ लोग फेसबुक का इस्तेमाल बस अपने दोस्तों की संख्या बढाने, गेम्स खेलने, बे-मतलब की चैट करने जैसे कामो के लिए करते हैं.

लोगो के स्टेटस अपडेट ( ख़ास कर युवा वर्ग) पढ़ के तो ऐसा लगता हैं की वो अपनी निजी ज़िन्दगी को कितने बेवकूफों की तरह ख़ुशी ख़ुशी बाजारू कर रहे हैं. मैं ये नहीं कहती की अपनी ज़िन्दगी को सबके साथ बाटना गलत हैं, पर ये तो आप लोग भी मानते होंगे की ज़िन्दगी के कुछ एहसास इतने निजी होते हैं की उनको यूँ बाजारू करने से उनके मायने खत्म हो जाते हैं. ऐसे स्टेटस ' i have got my first kiss" , "i am no more virgin" , " i have lost my father" ...इन बातो को फेसबुक  पे लिखने का क्या मतलब बनता हैं? अगर किसी को अपनी जिंदगी का पहला किस मिला हैं तो उसे उसके फ्रेंड्स लाइक करते हैं, कमेन्ट करते हैं उसपर...इतने खूबसूरत एहसास की नुमाइश लगाने का क्या मतलब बनता हैं?  या अगर किसी ने अपनी virginity या father को खोया हैं तो क्या उसको फेसबुक  पे लिखना जायज़ हैं? ऐसे लोग क्या चाहते हैं की लोग उनकी निजी बातो को जानकार उनकी ख़ुशी के साथ दुःख को लाइक कर के उसपर कमेन्ट दे या फिर ऐसे लोग लोगो की सहानुभूति चाहते हैं अपने दुखो पर.....मुझे लगता हैं के ऐसे लोग जितना अधिक समय फेसबुक  पे बिताते हैं वो अपनी निजी ज़िन्दगी में उतने ही तन्हा और कुंठित होते हैं इसलिए ऐसी बचकानी हरकते करते हैं.

कहने को तो ये एक सोशल नेटवर्किंग साईट हैं , जिसके जरिये आप अपने बिछड़े हुए दोस्तों से जुड़ सकते हैं, या कहिये आप अपना सोशल नेटवर्क मज़बूत कर सकते हैं...पर ये मजबूती कहीं न कहीं इस अंतरजाल की दुनिया तक में सिमट के रह जाती सी दिखती हैं. पहले लोग अपनी खुशियों के मौके पर लोगो से मिलते जुलते थे या फ़ोन पर बात करते थे पर अब...किसी भी ख़ुशी, तीज-त्यौहार की बधाई को अपना स्टेटस बनाया और सबसे शेयर कर लिया और हो गया काम खत्म, न मिलना न फोन करना...एक ज़िम्मेदारी थी जो निपट गयी... इससे लोग हर ख़ुशी और गम में अपने दोस्तों और रिश्तेदारों का साथ तो दे देते हैं पर उसमे दिली भावनाए नहीं होती..सिर्फ खोखला दिखावा रह गया हैं..

सिर्फ फेसबुक  पर फोटो टैग करने, दोस्तों के स्टेटस  पे कमेन्ट करने, उनकी वाल पर उनको जन्मदिन की बधाईयाँ देने से उनके दिलो तक नहीं पंहुचा जा सकता...उम्मीद करती हूँ की ४ दिन बाद आने वाले रंगों के त्यौहार पर आप सिर्फ फेसबुक  स्टेटस तक सिमट कर नहीं रह जायेंगे, सभी अपने दोस्तों को अपने होने का एहसास करायेगे और अपनी और उनकी ज़िन्दगी के कुछ पल साथ बिता कर अपने अकेलेपन को कम करेंगे.

Tuesday, March 15, 2011

आँखे पढ़ सकता हो जो,
उससे दर्द छुपाने की कोशिश बेकार हैं,
ख़ामोशी की आवाज़ सुन सकता हो जो,
उससे बे-मतलब महफ़िल में बतियाना बेकार हैं,
धड़कन के हलचल महसूस कर सकता हो जो,
उखड्ती साँसों को आहें बताना बेकार हैं,
आंसुओ की पहचान कर सकता हो जो,
तिनका जाने का बहाना बेकार हैं,
मुस्कुराने की अदा पहचानता हो जो,
खिलखिला के मुह घुमाना बेकार हैं,
तेरे चेहरे से तेरे दिल को समझ सकता हो जो,
उससे हाल-ए-दिल छुपाना बेकार हैं. 
 
( ये कविता मेरे उन सभी दोस्तों के लिए जो अपने प्रोब्लम्स को छुपाने की नाकाम कोशिश कर के खुद को बेवकूफ बनाते हैं. आशा करती हूँ की वो सभी नालायक दोस्त अगली बार से ऐसी बेवकूफियां नहीं करेंगे.)

Saturday, March 12, 2011

चाय की चुस्कियां और मीठे पल


दोस्तों का साथ और चाय की चुस्कियां....ये दोनों अगर साथ  हो तो समय ऐसे भागता है जैसे फ़ॉर्मूला- कार.. चाय की चुस्कियो के साथ बाते बनाने का जो सिलसिला शुरू होता है वो ख़त्म होने का नाम ही नहीं लेता..हम सारे दोस्त जब भी साथ होते हैं तो चाय की चुस्कियो के साथ अपनी ज़िन्दगी के वो पल बाटते हैं जिन पलो में हम एक दुसरे से नहीं मिले थे. कभी कोई अपनी स्कूल के शरारते, तो कभी कोई अपने क्लास टीचर पर जो क्रश था वो बताता हैं, कोई अपने एग्जाम में चीटिंग करने का तरीका तो कोई अपना भोलापन बताता हैं. सभी अपनी पुराने पलो को एक दुसरे के साथ बाट कर खुश होते हैं..

आज मैं शर्मा अंकल के टी-स्टाल के पास से गुज़र रही थी तो वह कुछ दोस्तों का जमावड़ा ठहाके लगा रहा था. उनके ठहाको की आवाज़ सुन कर मैं मिनट के लिए वही रुक गयी और उनकी बाते सुनने लगी. वह शर्मा जी के साथ उनके दो दोस्त थे जो चाय के नशे में डूब कर पूरे विश्व की धज्जियां उड़ा रहे थे. ऐसा लग रहा था मानो अभी ये तीन मिलकर देश दुनिया की सारी गंदगी साफ़ ही कर देंगे.

उनकी बहस बेमतलब में जो मुद्दा गरमाया हुआ था वो था देश में बढती महंगाई और भ्रष्टाचार.इस पर सबसे पहले शर्मा जी मनमोहन और उनकी सरकार को कोसते हुए बोले " अरे भाई ! ये मनमोहन का ही कमाल हैं, दिखने में जितना सीधा और ईमानदार हैं, असल में उतना बड़ा चोर हैं, इतने घोटाले हुए हैं उसके राज में की अब तो जी उब गया हैं और ये आसमान छूती  हुई महंगाई से तो दो वक़्त की रोटी के भी लाले पड़ गये हैं. " शर्मा जी का इतना  बोलना ही था की चड्ढा जी गुस्सा गये और तपाक से बोले "इसमें मनमोहन जी क्या कर लेंगे, मुझे तो उनकी इमानदारी पर कोई शक नहीं हैं. ये तो मीडिया है जिसने उनके नाम को ज़बरदस्ती इतना उछाल दिया हैं, और महंगाई कोई उनके कारण थोड़े ही बढ़ रही है. ये खाद्य उत्पाद  महंगे इसलिए हो रहे है क्यूँ की लोगो की आय बढ़ रही हैं साथ में क्रय शक्ति, और चीजों की मांग तो महंगाई तो बढ़ेगी ही."  उसके बाद तिवारी जी बोल पड़े " मनमोहन कोई दूध के धुले भी नहीं हैं, देखा नहीं प्रेस कांफ्रेंस में किस तरह बोला की मैं दोषी हूँ पर उतना नहीं जितना मीडिया बता रही हैं." इसी तरह ये बहस चलती रही और उसके साथ साथ शर्मा जी की चाय की दुकान भी. वो तीनो ही  रूपये की चाय में इस तरह मज़े ले रहे थे की जैसे कोई कुबेर का खजाना हाथ लग गया हो. पीछे की तरफ जो नौकर चाय पर चाय बना रहा था वो दूध कम और पानी ज्यादा मिला कर सबकी चाय को मजेदार बना रहा था.  मैं वह खड़े उनके तर्क वितर्क सुन ही रही थी की तभी शर्मा जी का मोबाइल बजा. वो फोन पर किसी से कह रहे थे " उस साले की औकाद ही क्या है! १००० का नोट उसकी जेब में रखो वो साला कोई गाडी नही रोकेगा, सबको जाने देगा. और तब भी माने तो बताना उसके हेड को मैं जानता हूँ, उससे दो तीन गालिया खायेगा तो लाइन पर जाएगा." मुझे नही पता शर्मा जी किससे बात कर रहे थे, पर उनके फ़ोन आने से पहले वो जिस तरह मनमोहन जी को कोस रहे थे उससे तो लग रहा था की वो खुद सच्चाई और इमानदारी की मूरत हैं.

उनकी बाते सुनने के बाद लगा के चाय की चुस्कियो के साथ ज़िन्दगी के हसीं पल ही नहीं बाटे जाते बल्कि इसके साथ इंसान अपना असली चहरा भी दिखाता हैं. चाय में भी कुछ वैसा ही नशा हैं जैसा शराब में हैं. जैसे शराब पीने के बाद इंसान अपने असली रूप को छुपा नहीं पाता वैसे ही चयेडी ( चाय के चरसी) भी चाय के बाद अपना असली रंग दिखाना शुरू कर देते हैं. खैर...जो भी हो, अगर हम सब फालतू की बहस में ना पढ़ कर खुद में ही सुधार कर ले तो ये सभी समस्याएं खुद ही  खत्म हो जाएँगी.