Friday, December 9, 2011

बंद डायरी के पन्ने

तेज़ हवा के साथ कुछ पन्ने पलट जाते हैं,
शायद वो पन्ने जिनको आप भूल चुके हो,
या वो पन्ने जिनको आप भूलना  चाहते हो,
पढने पर उनको कसक उठती है,
हर अक्षर कहता है अपनी कहानी,
याद आ जाती हैं बातें पुरानी,
कुछ शब्द देते हैं याद सुहानी,
कुछ कह जाते हैं हमारी नादानी,
उस बंद डायरी के पन्ने
खुलने के बाद
दिल फिर यही कहता हैं
यादो में बसा हर पल
हमेशा जिंदा ही रहता हैं.

Monday, October 17, 2011

INCREDIBLE INDIA

our ( sufia n i ) documentary "INCREDIBLE INDIA" which we made under the supervision of mukul sir...edited by ravi sir and vinay sir...thank u sir....

Saturday, October 8, 2011

क्या करे ?

जो दिल में बसते हो आपके
वहां रहना ही ना चाहे,
तो क्या करे ?

जब सवालों की गठरी
भारी होती जाए
जवाब ना मिले,
तो क्या करे ?

जब मद्धम आवाज़
सुनना चाहे दिल
सिर्फ रूदन सुनाई पड़े,
तो क्या करे ?

जब दर्द शब्दों में
बयां करना चाहे
और होठ कपकपाये
तो क्या करे ?

पलकों में बसा
रखे हो आंसू
आँखे बरसने ना पाए
तो क्या करे ?

जब ठहरना चाहे
किसी मुकां पे
आंधी में पत्ते की तरह
उड़ते चले जाए
तो क्या करे ?

जब सुकूं की तलाश हो
रूह थरथराती ही जाए
तो क्या करे ?

जब किसी के
कदमो के निशाँ
कैद करना चाहे
लहरें उसे मिटाती
चली जाए
तो क्या करे ?

जब तस्वीर कोई उकेरने
को दिल करे
कलम साथ ही ना दे
तो क्या करे ?

जब वक़्त को थामना चाहे
और लम्हा अहिस्ता अहिस्ता
गुज़रता चला जाए
तो क्या करे ?

जो आपकी हसी पे
मरते थे कभी
आपकी मौत की
खबर पर मुस्कुराए
तो क्या करे ?

Wednesday, October 5, 2011

वो पल अच्छे थे

वो पल अच्छे थे
जब तुम छत से
टपकते पानी को देख
मेरे सर पर अपना हाथ
रख लेते थे
शर्ट पहन के उसका
टूटा बटन
मुझसे टकवाते थे
रोज़ अपने हाथो से
मेरी मांग सजाते थे
मैं कौन सा रंग पहनू
मुझे बताते थे
मेरे हाथ की
अधजली रोटियाँ
स्वाद लेकर खाते थे
अपनी साईकिल पर बिठा
कर मुझे शहर घुमाते थे
घंटो साथ बैठ कर
मुझसे बतियाते थे
हर रात अपनी बाहों को
मेरा तकिया बनाते थे
मैं कभी नींद से जग जाऊ
सो तुम भी नहीं पाते थे
घबरा जाऊ जो मैं
मुझे गले लगाते थे
साथ बैठ कर मेरे
यादो की तस्वीर बनाते थे
मेरे बिना कुछ पल भी
अकेले रहने से सकुचाते थे
मेरी एक मुस्कान के लिए
सौ दर्द सह जाते थे
चंद सिक्को की तलाश में
तुम क्यूँ पड़ गये
वक़्त की दौड़ में
मुझे छोड़
क्यूँ आगे बढ़ गये
खड़ी हूँ मैं आज भी
उसी मोड़ पर
जानती हूँ लौटोगे तुम
जब जानोगे
वो पल ही अच्छे थे.

Tuesday, October 4, 2011

मुझे चाहत है अब भी

साँसे चलती थी तब तुम ना थी
तुम्हारी चाहत थी
कब्र में दफ़न होने के बाद भी
चाहत हैं
तुम्हारे हाथ से छु कर
रखे दो फूलो की
जिनकी महक में मैं
तुम्हारी सुंगंध
को खुद में बसा लूँगा
आ जाना प्रिय
मैं फिर से देखूँगा
वो प्यार
जो मैंने अपने लिए
हर पल तुम्हारी आँखों में
महसूस किया
ना जानू तुम अपने एहसास
जान नहीं पाई या
कोई और बंधन तुम्हे रोका था
ये तो कह ना सकोगी तुम
प्यार ना था
क्या था वो
जब तुम अपने बालकनी में
कपडे सुखाने के बहाने
मेरा इंतज़ार करती थी
क्या था वो
जब तुम अपने रास्ते में
मुझे खड़ा देख कर
मुस्कुराती हुई
आगे बढ़ जाती थी
क्या था वो
जब जानते हुए की मैं ही हूँ
फोन उठा के
" कौन", " कौन", " कौन",
कहकर
अपनी मीठे स्वर का रस
मेरे कानो में घोल देती थी
क्या था वो
जब तुम बिना अपना नाम लिखे
वो खाली चिट्ठी मेरे घर भेज देती थी
क्या था वो
जब मेरे दरवाज़े के सामने से
गुजरते वक़्त
रुक कर मुझे खोजती थी
मैं बहार आ जाऊ इसलिए
अपनी पायल खनखाती थी
क्या था वो
जब मंदिर जाकर मेरे लिए
इश्वर से दुआ मांगती थी
हां! सुना है छुप छुप कर
मैंने तुम्हारी उन दुआओ को
छुप कर देखी हैं मैंने
तुम्हारी आँखों में
मुझे एक झलक
देख पाने की
बैचैनी
हां मैं जानता हूँ
तुम्हे प्यार हैं मुझसे
और जानता हूँ
समाज के डर से
कह ना पाई कभी
तुम्हारी इस ख़ामोशी को
सह पाने की मुझमे
और हिम्मत ना थी
पर चाहत है मुझमे अब
भी तुमसे मिलने की
प्रियतम! अब तुम
मंदिर के बहाने
घर से निकल कर
दो फूलो से महका
देना मुझे
मेरी कब्र पे
तुम्हारा स्पर्श
मुझे फिर से साँसे देगा
मुझे लगेगा जी रहा हूँ मैं
स्पर्श कर पा रहा हूँ
तुम्हारा प्यार
हां! मुझे चाहत है अब भी.

Monday, October 3, 2011

आग की लपट में
शीतलता पा रहा होगा
जब ये तन
तुम अपनी आँखों को
आंसुओ से मत जलाना
सिसकेगी मेरी आत्मा
जब कोई और
मेरे नाम का आंसू
तुम्हारे चेहरे से पोछेगा
इस संसार की सीमाओ
में साथ
ना रह सके तो क्या
बन के हवा का
खुशबूदार झोका
महकाऊँगा मैं तुम्हारा जीवन
मेरी चिता की अग्नि को
अपनी आँखों में
याद बना कर बसा लेना
देह की चुटकी भर राख से
अपनी मांग सजा लेना
याद करना मुझे जब भी
अपने कमरे के किवाड़ खोल लेना
आऊंगा मैं तुमसे मिलने
बैठूँगा वैसे ही
तुम्हारा हाथ थाम कर
धूप जब लगेगी मेरे चेहरे पर
तुम अपनी ओढनी से वैसे ही ढक लेना
फिर तुम्हारी गोद में सर रख कर
सो जाऊंगा
आता रहूँगा यूँ ही
हर बार तुमसे मिलने
बस तुम मेरे मिलन की चाह
को अपने दिल से कभी ना मिटाना.

Wednesday, September 14, 2011

पढो ज़रा...

listen ज़रा..
  कल १३ सितम्बर २०११ का दिन मेरे और मेरे क्लास ( एम.जे.एम.सी. ३    सेमेस्टर, लखनऊ विश्विद्यालय ) के सभी स्टुडेंट्स के लिए बहुत ही  महत्वपूर्ण था. कल हम सबको मुकुल सर के सहयोग से अपनी रचनात्मकता को लोगो के सामने प्रस्तुत करने का मौका मिला. ये प्रस्तुतीकरण हम सबने एक रेडियो इवेंट के ज़रिये किया जिसका नाम था listen ज़रा....

इस प्रोग्राम में मुख्य अतिथि के रूप में हमारा साथ  प्रो.ए.के.सेनगुप्ता, डॉ.आर.सी.त्रिपाठी, प्रो. राकेश चंद्रा, प्रो.मनोज दीक्षित, और रेड एफ एम के मशहूर आर जे आमिर ने दिया. आर जे आमिर की उपस्थिति ने सभी स्टुडेंट्स को जोश से भर दिया था. अतिथियों ने दीप प्रज्वलित कर के इवेंट का शुभ आरम्भ किया. 
 
इसके बाद अतिथियों ने स्टुडेंट्स की बनायीं हुई सीडी का विमोचन किया.हमारे एंकर्स ने अपने चुटीले अंदाज़ में प्रोग्राम को आगे बढाते हुए उस सीडी में कैद हम सबकी आवाजों को वहा बैठी जनता तक पहुचाया. स्टुडेंट्स ने गीतों भरी कहानी में जिंदगी के सफर के अलग अलग आयामों - बचपन, दोस्ती, मन, तनहाई, मौत, आंखें, चेहरा, रात, सावन  को  पेश किये. साथ ही  रेडियो नाटक के ज़रिये हमने अपने समाज की व्यथा को लोगो तक पहुचाया. हमारे काम को सुनने के बाद अतिथियों ने उसको सराहा भी और साथ ही कमिया भी बताई. 

फीडबैक बोर्ड
आर जे आमिर ने जर्नालिस्म स्टुडेंट्स के कुछ सवालों का भी जवाब दिया और बताया की एक अच्छा आर जे बनने के लिए आत्मविश्वास, शब्दों का जाल और तुरंत जवाब देने की क्षमता होनी चाहिए. अपने सहज अंदाज़ में स्टुडेंट्स से बात कर के उन्होंने सबके बीच एक अलग जगह बना ली.

इवेंट कब शुरू होकर कब अपने अंतिम पड़ाव पे आ गया, पता ही नहीं चला. सभी ने पूरे इवेंट को खूब एन्जॉय किया. अतिथियों ने फीडबैक बोर्ड पर अपने फीडबैक दिए जिसे पढ़ कर स्टुडेंट्स का मनोबल बढ़ा.

स्टुडेंट्स की मस्ती
इवेंट के ख़त्म होने के बाद शुरू हुई हम स्टुडेंट्स की मस्ती. हम सब मिलकर खूब झूमे, नाचे, चिल्लाये, या यूँ कहे कि हमने अपने इवेंट की सफलता का जश्न मनाया. अगर मुकुल सर का सपोर्ट नहीं होता तो ये इवेंट कभी भी सक्सेसफुल नहीं बन पाता.
our गुरु- मुकुल सर (center)

इस पूरे इवेंट के दौरान हमने बहुत कुछ सीखा- ग्रुप में काम करना, अपने पर विश्वास रखना, हौसला बनाये रखना, समय के पाबंद रहना...ये सब सीख पाए मुकुल सर के कारण. अगर वो इस तरह का कोई इनिशीएटिव ना लेते तो हम स्टुडेंट्स इस खूबसूरत अनुभव से कभी न गुज़र पाते और इन बातो को ना सीख पाते.

Tuesday, August 9, 2011

श्रृंगार कर के बैठी, खूबसूरत लगती है वो नारी,
अपने हक के लिए आवाज़ उठा दे,
संस्कारहीन कह दे दुनिया सारी,
धैर्य देखा है सबने,
दहक के दर्शन बाकी हैं,
जल जाएगी वो इसमें,
या दुनिया का जलना बाकी हैं,
अपनों की खुशियों की महक से खुश रही,
अस्तित्व बोध के लिए लड़ना बाकी हैं,
हर मोड़ पे अंगारे बिछाए अपनों ही ने,
अपने लिए खूबसूरत रास्ता बनाना उसका बाकी हैं,
जन्मदात्री तो बन गयी वो जीवन की,
अपने जीवन के निर्णय स्वयं लेना अभी बाकी हैं,
स्त्री रूप की पहचान बन गयी,
मनुष्य रूप में पहचान बनाने की आस अभी बाकी हैं,
डटी है वो सबके समक्ष, अकेले में आंसू बहाए,
साथ देना आप भी, लड़ते लड़ते कही टूट ना जाए.

Sunday, July 31, 2011

कभी खुद से पहचान,
कभी अनजान हूँ मैं,


कभी सपनो से पूर्ण,
कभी अधूरा ख्वाब हूँ मैं,


कभी उडती तितली,
कभी टूट चुके पंख वो परिंदा हूँ मैं,


कभी संगीतमय बांसुरी,
कभी बिखरी लय ताल हूँ मैं,


कभी हर जवाब,
कभी खुद के लिए सवाल हूँ मैं.

Sunday, July 24, 2011

पास अपने आना चाहती हूँ


दूर कहीं सबसे जाना चाहती हूँ,
खुले आसमां के तले बैठना चाहती हूँ,
जहा हवा की बयार मन को बहलाए,
सागर की लहरें दिल को छू जाए,
बस चिड़ियों की चहक,फूलो की महक हो जहा,
कोई पहचाना चेहरा ना हो वहा,
मुझे ना खबर हो जहा दिन और रात की,
बातें ना हो जहा झूठे जज़्बात की,
रिश्तो के नाम पे जहा ठगी ना हो,
खंज़र किसी के दिल पे प्यार की लगी ना हो,
जहा मैं अपनी हसी सुन पाऊ,
अपने अश्को की बूँद गिन पाऊ,
अपनी साँसों की महक पाना चाहती हूँ,
दूर सबसे पर पास अपने आना चाहती हूँ,
दूर कहीं सबसे जाना चाहती हूँ

Monday, July 18, 2011

लिखने बैठे ख़ुशी,
हर बार कलम
तन्हाई लिख गई,
बेवफा ना थे हम कभी,
उनकी नजरो में अपनी बेवफाई दिख गयी,
मेरे उनकी ओर बढ़ते कदम ना देखे उन्होंने,
हमारे बीच की उन्हें पर गहराई दिख गयी,
अलविदा कह कर चल दिए वो,
जैसे जानते ही ना थे,
उनके जाने के बाद
हम जैसे खुद को पहचानते ही ना थे,
देखा एक रोज़ खुश उनको
हम खुद को पहचानने लग गये,
तन्हा हैं फिर भी हम,
अपने को संभालने लग गये.

Thursday, July 14, 2011

काश दिल में भी एक दिल होता

काश दिल में भी एक दिल होता,
पनप सकते उसमे भी कुछ एहसास,
दिल किसी का तनहा न होता,
हो सकती दिल की दिल से बात,
एक दिल उदास होता,
दूसरा उसपर खुशियाँ लुटाता,
एक टूट भी जाता दर्द से कभी,
दूसरा मरहम लगाता,
खुश होते दोनों
मिलकर जश्न मनाते,
साथ हँसते कभी,
कभी दिल भर के खिलखिलाते,
काश दिल में भी एक दिल होता,
पनप सकते उसमे कुछ एहसास.

Monday, June 27, 2011

ये सफ़र कितनी ही कहानियाँ दे गया,
हर लम्हे में जिंदगानियां दे गया,
कभी आँख से गिरता आंसू रुसवाई,
तो कभी कोई अपना जुदाई दे गया,
कभी कुछ सपने शीशे से टूट गये,
कभी हम अपनों से,कभी वो हमसे रूठ गये,
कभी चीखती रही ख़ामोशी,
कभी महफ़िल भी खामोश हो गयी,
कभी फासलों का मंज़र था,
कभी चारो ओर बंजर था,
फिर भी खुद को संभालते हैं हम,
खोते है खुद को तो तलाशते भी हैं,
रोते हैं कभी तो मुस्कुराते भी हैं,
तन्हाई के सफ़र में चाहे जहा निकल जाए,
लौट के अपने पास आते ही हैं.

Friday, June 24, 2011

हर आहट पर उनका ख्याल आया,
वो ना आये,पैगाम हर बार आया,
पैगाम में उनका चेहरा मुस्कुराता हैं,
दर्द हर अक्षर का मुझको सताता हैं,
कह ना पाए मिल कर जो कभी,
लिख दी वो बातें पन्ने पर सभी,
जान कर ये अब दिल इतराए,
या आँखों को ये रुलाये,
कह कर गये थे लौटेंगे वो,
वापस तो अब तक ना आये,
चेहरा है उनका यादो में अब भी,
भरोसा हैं हमको वादों में अब भी,
हर आहट पर उनका ख्याल आया,
वो ना आये,पैगाम हर बार आया.

Thursday, June 16, 2011

यादो का पिटारा

नगमे हैं, शिकवे हैं, किस्से हैं, बातें हैं,
बातें भूल जाती हैं,
यादे याद आती हैं....

हम सभी की ज़िन्दगी में तमाम यादें होती हैं जो हमारे दिल में बसी होती हैं. ये यादें किसी डायरी, फोटो, कार्ड, गिफ्ट, या लैटर के रूप में हमारे यादो के पिटारे में कैद होती हैं. जब भी हम अपने उस पिटारे को खोलते हैं तो उन सभी यादो का स्पष्ट चित्र हमारी आँखों के सामने बन जाता हैं और हमारे दिल को शायद ठीक ऐसा महसूस होता हैं की हम किसी मशीन के ज़रिये वापस उस वक़्त में लौट गये हैं.

ये वो लम्हे होते हैं जिनको जीते वक़्त हमको ये एहसास भी नहीं होता हैं के इनके बीतने के बाद इनकी हू-ब-हू तस्वीर हमारे दिल में छप जायेगी. ऐसे लम्हों से हर एक की ज़िन्दगी सजी होती हैं. इन लम्हों को इंसान अपनी आखिरी सांस तक नहीं भूलता. पहली बार स्कूल जाना, लाइफ की फर्स्ट फ्रेंड, एग्जाम के टाइम माँ का रात भर साथ में जागना, दोस्तों के साथ आढे तिरछे मुह बनाते हुए तस्वीरे खिचवाना, सरप्राइज पार्टी देना, कॉलेज में एडमिशन की एक्साइटमेंट के साथ १२ क्लास की फैरवल पार्टी, पहली बार खुद को साडी में संभालना, पापा की दी हुई सीख को डायरी में नोट करना, अपने लाइफ के फर्स्ट क्रश के लिए लिखा गया लैटर....ऐसी न जाने कितनी ही यादे हम अपने उस बक्से में कैद कर के रखते हैं. मैंने अगर अपने जीवन के इन सभी पलो को किसी न किसी रूप में अपने पिटारे में ना भी संजोया होता, फिर भी मैं इनका चित्र अपनी आँखें बंद करने पर देख सकती हूँ और अगर मैं चित्रकार होती तो इन सभी खूबसूरत चित्रों को कागज़ पर ज़रूर उकेरती.

आप सबको ये लग रहा होगा की मैं सिर्फ खूबसूरत यादो की बात कर रही हूँ जबकि जीवन में तो कडवी यादें भी होती हैं. दोस्तों हमने जब उन बुरे पलो को जिया था तब हमें जितना घुटना था, सहना था वो सह चुके. अब अगर हम फिर से उन बुरी यादो को टटोलेंगे तो अपना आज खराब करेंगे तो क्यों हम बार बार उन पलो को याद करे जिसमे सिर्फ दर्द, तकलीफ, सन्नाटा और आंसू हैं.

अगर आपको अपनी ज़िन्दगी की उन तमाम खूबसूरत यादो का चित्र अपनी आखें बंद करने पर कुछ धुंधला नज़र आ रहा हैं तो मेरी आपसे ये गुजारिश हैं की अपनी उन यादो के पिटारे को अपनी अलमारी में बंद ना रखे, उसको खोलकर, उसमे मौजूद तमाम गिफ्ट, चिट्ठिया, तस्वीरे, डायरी को छूकर, देखकर, पढ़कर, महसूस करके फिर से उन यादो का रंग अपनी ज़िन्दगी में चढ़ा लीजिये. और हां! एक बार उस खूबसूरत गुलाब को उठाकर उसको अपनी नाक के करीब ज़रूर ले जाइएगा, आपको उसकी महक ठीक वैसी ही महसूस होगी जैसी की गुलाब को डायरी में रखते वक़्त हुई थी.

ये यादें हैं तो हम हैं,
हमारी मुस्कराहट हैं,
दूर हो हम आपसे जितना भी,
पर ज़िन्दगी में आपकी आहट हैं,
हर एक की ज़िन्दगी कुछ आहत हैं,
पर हमको अपनी जिंदगी को, अपनी यादो से,
जिंदा रखने की चाहत हैं.

Friday, May 27, 2011

ना जाने ये कैसे हालात हैं मेरे?
ज़िन्दगी से कई अनसुलझे सवालात है मेरे?
कोई नहीं है पास,
तनहा मैं और खयालात हैं मेरे,
मीलो वीरानी छाई हैं,
ना चाहते हुए भी याद किसी की आई हैं,
कह दो इन यादो से सताए ना मुझको,
बे-मतलब रुलाये ना मुझको,
रुमाल अब आंसुओं को सोखता नहीं,
कोई किसी के आंसू पोछता नहीं,
इतना अकेला कभी अपने को पाया ना था,
दूर मुझसे कभी मेरा साया ना था,
ना जाने ये कैसे हालात हैं मेरे?
ज़िन्दगी से कई अनसुलझे सवालात है मेरे?

Monday, May 16, 2011

सोचा ना था...

इतनी उम्मीदे मेरी टूटेंगी सोचा ना था,
महफ़िल मेरी छूटेगी सोचा ना था,
हर आंसू के बदले हंसाया जाता था,
हंसी भी कभी रोएगी सोचा ना था,
आँखें बंद करने पर भी देखती थी जिनको,
आस-पास ना पाउंगी सोचा ना था,
गिरने की फ़िक्र कभी होती ना थी,
चलने से भी घबराउंगी सोचा ना था,
सबमे खो कर खुश थी इतना,
खुद को ना पाऊँगी सोचा ना था,
इतनी उम्मीदे मेरी टूटेंगी सोचा ना था,
महफ़िल मेरी छूटेगी सोचा ना था.

Sunday, March 27, 2011

मुस्कुराइए की आप लखनऊ में हैं


लखनऊ शहर की अपनी खास नज़ाकत और तहजीब वाली बहुसांस्कृतिक खूबी, दशहरी आम के बाग़ों, चिकन की कढ़ाई के काम, यहाँ की एतिहासिक इमारतो के बारे में खूब सुना था पर इस शहरको करीब से जानने का मौका कल मिला. कल मैं अपने सभी दोस्तों के साथ उ. प्र. के टूरिज्म विभाग की ओर से संचालित लखनऊ हेरिटेज वाक के ज़रिये लखनऊ को करीब से जानने निकली, इस वाक के जरिये लखनऊ को बहुत करीब से जानने और इस शहर के साथ अपनी पहचान बनाने का मौका मिला.

हम सबका ये शानदार सफ़र उस टीले वाली मस्जिद से शुरू हुआ जिसे सन १७७५ इ  में नवाब आसिफ अली ने बनवाई थी. ये मस्जिद शहर की सबसे ऊँची जगह पर बनी हुई है और शहर की सबसे ऊँची इमारतों में से एक हैं.इस मस्जिद के पास बहती हुई गोमती नदी के इतिहास से रू-बा-रू करते हुए हमारे गाइड नवेद, आतिफ और इमरान हाश्मी जी हम सबको लखनऊ की शान इमामबाडा की ओर ले गए. यह एतिहासिक इमारत शांत होते हुए भी बहुत कुछ बयाँ कर रही थी. इसकी खूबसूरती मनमोहक थी. फिर इमामबाड़े से निकलते हुए हम सब पहलवान ठंडाई की दुकान पर पहुचे. वह दुकान के मालिक ने बताया की ये दुकान पिछले १०० सालो से चल रही है. इस दुकान की बेहतरीन ठंडाई का आनंद हम सबने लिया और फिर यहाँ से सबने मंदिर की ओर रुख किया. फिर मंदिर में दर्शन करने के बाद यूनानी अस्पताल की बदहाल इमारत को देखने और इस के इतिहास को जानने का मौका मिला. यूनानी अस्पताल के एक तरफ फरंगी कोठी थी जिसके बारे में हमारे गाइड ने बताया की ये जगह नवाब वाजिद अली ने फिरंगियों को दे दी थी और यहाँ फारस के लोग रहते थे इसलिए इसे फरंगी कोठी कहते हैं.

यहाँ से आगे बढ़ते हुए हम लोग फूल वाली गली पहुचे. वहाँ की दुकानों पर बिखरे हुए फूल बहुत ही खूबसूरत दिख रहे थे और उनकी शानदार महक पूरी गली को महका रही थी. हमारे साथ जो गाइड थे वो हम सबको पुराने लखनऊ की तंग गलियों का सफ़र करा रहे थे और साथ ही उन गलियों में बने घरो और इमारतो के इतिहास को बता रहे थे. हमारे गाइड ने हमें रूमी दरवाज़ा, इमामबाड़ा, मच्छी भवन, दौलत खाना, चौक बाज़ार, लाल पुल सबका इतिहास बता कर हमें हमारे लखनऊ की खूबसूरती से रू-बा-रू कराया.

लखनऊ की तमाम खूबसूरत इमारतो के बारे में जानने के बाद हम सब अपनी पेट-पूजा के लिए पुराने लखनऊ के मशहूर होटल रहीम की और रुख किया और वहाँ के लज़ीज़ व्यंजनों के  स्वाद का आनंद लिया. इसके बाद सबने राधे लाल की स्वादिष्ट लस्सी का आनंद लिया. इस तरह ये खूबसूरत सफ़र हम सबके दिलो में एक याद की तरहा बस गया. अगर हम इस हेरिटेज वाक के लिए न गए होते तो शायद हम अपने लखनऊ की इस खूबसूरती को इतने करीब से कभी नहीं जान पाते. लखनऊ को इतने करीब से जानने के बाद एक मंद मुस्कराहट मैंने सभी दोस्तों के चेहरे पर देखी और इस पूरी विसिट के बाद मुझे ये लाइन जो लखनऊ में जगह जगह लिखी है  "मुस्कुराइए की आप लखनऊ में हैं" सार्थक होती दिखी.

Friday, March 25, 2011

समझ ना आये रास्ता क्या हैं?
ज़िन्दगी से मेरा वास्ता क्या हैं?
कभी लगाती हूँ ठहाके, कभी हर तरफ गम हैं,
इस कश-म-कश में मेरी आँखे नम हैं,
कभी वक़्त ठहरा सा लगता हैं,
कभी अनजान पहरा सा लगता हैं,
टूटने की खनक गूंजती है कानो में,
बिखरी तस्वीर हैं मेरी अलग अलग इंसानों में,
खोजती हूँ खुद को इस पहचान में,
पाती हूँ फिर भी खुद को अनजान मैं,
समझ ना आये रास्ता क्या हैं?
ज़िन्दगी से मेरा वास्ता क्या हैं?

Thursday, March 24, 2011

सागर की लहर एक खेल हैं,
क्या किनारों से टकरा कर चोटिल नही होती?

आँखों को काजल सजाता हैं,
क्या सजी आँखें बोझिल  नहीं होती?

चेहरा अगर सूखा है,
क्या रूमाल अश्को से भीगा नहीं होता?

जो चोट दिखती हैं दवा है उसकी,
क्या अदृश्य चोट  का मरहम नहीं होता?

Wednesday, March 16, 2011

फेसबुक का चस्का


चस्का चस्का........लगा हैं चस्का चस्का....अरे भाई! मैं बदमाश कम्पनी के गाने को गुनगुनाने के मूड में नहीं हूँ, ये तो मैं उन लोगो के बारे में बात कर रही हूँ जिनको फेसबुक का चस्का लगा हैं. फेसबुक  को इस्तेमाल करने वालो की संख्या जितनी तेज़ गति से बढ़ रही हैं उससे देख कर तो लगता हैं की आने वाले कुछ समय में इन्टरनेट को भी फेसबुक के नाम से जाना जायेगा. आज हर उम्र के लोग फेसबुक से जुड़े हुए हैं. चाहे युवा हो या बुजुर्ग, सबको ही ये सोशल नेटवर्किंग साईट खूब लुभा रही हैं.

लोग एक दूसरे के स्टेटस को लाइक  करते हैं, उसपर कमेन्ट करते हैं, अपने स्टेटस को अपडेट करते हैं, वगेरह वगेरह....तमाम तरह के ऐप्लीकेशंस हैं जिनको इस्तेमाल करके वो घंटो फेसबुक पर बिताते हैं. कुछ समझदार लोग फेसबुक का सकारात्मक इस्तेमाल करते हैं, जैसे- अपनी लिखी किताबो,ब्लोग्स का प्रचार करना, किसी सामाजिक मुद्दे पर लोगो की राय जानना, सामाजिक समस्याओं को दूर करने के लिए चलाये गये मुहिम से लोगो को जोड़ना, वगेरह....और कुछ लोग फेसबुक का इस्तेमाल बस अपने दोस्तों की संख्या बढाने, गेम्स खेलने, बे-मतलब की चैट करने जैसे कामो के लिए करते हैं.

लोगो के स्टेटस अपडेट ( ख़ास कर युवा वर्ग) पढ़ के तो ऐसा लगता हैं की वो अपनी निजी ज़िन्दगी को कितने बेवकूफों की तरह ख़ुशी ख़ुशी बाजारू कर रहे हैं. मैं ये नहीं कहती की अपनी ज़िन्दगी को सबके साथ बाटना गलत हैं, पर ये तो आप लोग भी मानते होंगे की ज़िन्दगी के कुछ एहसास इतने निजी होते हैं की उनको यूँ बाजारू करने से उनके मायने खत्म हो जाते हैं. ऐसे स्टेटस ' i have got my first kiss" , "i am no more virgin" , " i have lost my father" ...इन बातो को फेसबुक  पे लिखने का क्या मतलब बनता हैं? अगर किसी को अपनी जिंदगी का पहला किस मिला हैं तो उसे उसके फ्रेंड्स लाइक करते हैं, कमेन्ट करते हैं उसपर...इतने खूबसूरत एहसास की नुमाइश लगाने का क्या मतलब बनता हैं?  या अगर किसी ने अपनी virginity या father को खोया हैं तो क्या उसको फेसबुक  पे लिखना जायज़ हैं? ऐसे लोग क्या चाहते हैं की लोग उनकी निजी बातो को जानकार उनकी ख़ुशी के साथ दुःख को लाइक कर के उसपर कमेन्ट दे या फिर ऐसे लोग लोगो की सहानुभूति चाहते हैं अपने दुखो पर.....मुझे लगता हैं के ऐसे लोग जितना अधिक समय फेसबुक  पे बिताते हैं वो अपनी निजी ज़िन्दगी में उतने ही तन्हा और कुंठित होते हैं इसलिए ऐसी बचकानी हरकते करते हैं.

कहने को तो ये एक सोशल नेटवर्किंग साईट हैं , जिसके जरिये आप अपने बिछड़े हुए दोस्तों से जुड़ सकते हैं, या कहिये आप अपना सोशल नेटवर्क मज़बूत कर सकते हैं...पर ये मजबूती कहीं न कहीं इस अंतरजाल की दुनिया तक में सिमट के रह जाती सी दिखती हैं. पहले लोग अपनी खुशियों के मौके पर लोगो से मिलते जुलते थे या फ़ोन पर बात करते थे पर अब...किसी भी ख़ुशी, तीज-त्यौहार की बधाई को अपना स्टेटस बनाया और सबसे शेयर कर लिया और हो गया काम खत्म, न मिलना न फोन करना...एक ज़िम्मेदारी थी जो निपट गयी... इससे लोग हर ख़ुशी और गम में अपने दोस्तों और रिश्तेदारों का साथ तो दे देते हैं पर उसमे दिली भावनाए नहीं होती..सिर्फ खोखला दिखावा रह गया हैं..

सिर्फ फेसबुक  पर फोटो टैग करने, दोस्तों के स्टेटस  पे कमेन्ट करने, उनकी वाल पर उनको जन्मदिन की बधाईयाँ देने से उनके दिलो तक नहीं पंहुचा जा सकता...उम्मीद करती हूँ की ४ दिन बाद आने वाले रंगों के त्यौहार पर आप सिर्फ फेसबुक  स्टेटस तक सिमट कर नहीं रह जायेंगे, सभी अपने दोस्तों को अपने होने का एहसास करायेगे और अपनी और उनकी ज़िन्दगी के कुछ पल साथ बिता कर अपने अकेलेपन को कम करेंगे.

Tuesday, March 15, 2011

आँखे पढ़ सकता हो जो,
उससे दर्द छुपाने की कोशिश बेकार हैं,
ख़ामोशी की आवाज़ सुन सकता हो जो,
उससे बे-मतलब महफ़िल में बतियाना बेकार हैं,
धड़कन के हलचल महसूस कर सकता हो जो,
उखड्ती साँसों को आहें बताना बेकार हैं,
आंसुओ की पहचान कर सकता हो जो,
तिनका जाने का बहाना बेकार हैं,
मुस्कुराने की अदा पहचानता हो जो,
खिलखिला के मुह घुमाना बेकार हैं,
तेरे चेहरे से तेरे दिल को समझ सकता हो जो,
उससे हाल-ए-दिल छुपाना बेकार हैं. 
 
( ये कविता मेरे उन सभी दोस्तों के लिए जो अपने प्रोब्लम्स को छुपाने की नाकाम कोशिश कर के खुद को बेवकूफ बनाते हैं. आशा करती हूँ की वो सभी नालायक दोस्त अगली बार से ऐसी बेवकूफियां नहीं करेंगे.)

Saturday, March 12, 2011

चाय की चुस्कियां और मीठे पल


दोस्तों का साथ और चाय की चुस्कियां....ये दोनों अगर साथ  हो तो समय ऐसे भागता है जैसे फ़ॉर्मूला- कार.. चाय की चुस्कियो के साथ बाते बनाने का जो सिलसिला शुरू होता है वो ख़त्म होने का नाम ही नहीं लेता..हम सारे दोस्त जब भी साथ होते हैं तो चाय की चुस्कियो के साथ अपनी ज़िन्दगी के वो पल बाटते हैं जिन पलो में हम एक दुसरे से नहीं मिले थे. कभी कोई अपनी स्कूल के शरारते, तो कभी कोई अपने क्लास टीचर पर जो क्रश था वो बताता हैं, कोई अपने एग्जाम में चीटिंग करने का तरीका तो कोई अपना भोलापन बताता हैं. सभी अपनी पुराने पलो को एक दुसरे के साथ बाट कर खुश होते हैं..

आज मैं शर्मा अंकल के टी-स्टाल के पास से गुज़र रही थी तो वह कुछ दोस्तों का जमावड़ा ठहाके लगा रहा था. उनके ठहाको की आवाज़ सुन कर मैं मिनट के लिए वही रुक गयी और उनकी बाते सुनने लगी. वह शर्मा जी के साथ उनके दो दोस्त थे जो चाय के नशे में डूब कर पूरे विश्व की धज्जियां उड़ा रहे थे. ऐसा लग रहा था मानो अभी ये तीन मिलकर देश दुनिया की सारी गंदगी साफ़ ही कर देंगे.

उनकी बहस बेमतलब में जो मुद्दा गरमाया हुआ था वो था देश में बढती महंगाई और भ्रष्टाचार.इस पर सबसे पहले शर्मा जी मनमोहन और उनकी सरकार को कोसते हुए बोले " अरे भाई ! ये मनमोहन का ही कमाल हैं, दिखने में जितना सीधा और ईमानदार हैं, असल में उतना बड़ा चोर हैं, इतने घोटाले हुए हैं उसके राज में की अब तो जी उब गया हैं और ये आसमान छूती  हुई महंगाई से तो दो वक़्त की रोटी के भी लाले पड़ गये हैं. " शर्मा जी का इतना  बोलना ही था की चड्ढा जी गुस्सा गये और तपाक से बोले "इसमें मनमोहन जी क्या कर लेंगे, मुझे तो उनकी इमानदारी पर कोई शक नहीं हैं. ये तो मीडिया है जिसने उनके नाम को ज़बरदस्ती इतना उछाल दिया हैं, और महंगाई कोई उनके कारण थोड़े ही बढ़ रही है. ये खाद्य उत्पाद  महंगे इसलिए हो रहे है क्यूँ की लोगो की आय बढ़ रही हैं साथ में क्रय शक्ति, और चीजों की मांग तो महंगाई तो बढ़ेगी ही."  उसके बाद तिवारी जी बोल पड़े " मनमोहन कोई दूध के धुले भी नहीं हैं, देखा नहीं प्रेस कांफ्रेंस में किस तरह बोला की मैं दोषी हूँ पर उतना नहीं जितना मीडिया बता रही हैं." इसी तरह ये बहस चलती रही और उसके साथ साथ शर्मा जी की चाय की दुकान भी. वो तीनो ही  रूपये की चाय में इस तरह मज़े ले रहे थे की जैसे कोई कुबेर का खजाना हाथ लग गया हो. पीछे की तरफ जो नौकर चाय पर चाय बना रहा था वो दूध कम और पानी ज्यादा मिला कर सबकी चाय को मजेदार बना रहा था.  मैं वह खड़े उनके तर्क वितर्क सुन ही रही थी की तभी शर्मा जी का मोबाइल बजा. वो फोन पर किसी से कह रहे थे " उस साले की औकाद ही क्या है! १००० का नोट उसकी जेब में रखो वो साला कोई गाडी नही रोकेगा, सबको जाने देगा. और तब भी माने तो बताना उसके हेड को मैं जानता हूँ, उससे दो तीन गालिया खायेगा तो लाइन पर जाएगा." मुझे नही पता शर्मा जी किससे बात कर रहे थे, पर उनके फ़ोन आने से पहले वो जिस तरह मनमोहन जी को कोस रहे थे उससे तो लग रहा था की वो खुद सच्चाई और इमानदारी की मूरत हैं.

उनकी बाते सुनने के बाद लगा के चाय की चुस्कियो के साथ ज़िन्दगी के हसीं पल ही नहीं बाटे जाते बल्कि इसके साथ इंसान अपना असली चहरा भी दिखाता हैं. चाय में भी कुछ वैसा ही नशा हैं जैसा शराब में हैं. जैसे शराब पीने के बाद इंसान अपने असली रूप को छुपा नहीं पाता वैसे ही चयेडी ( चाय के चरसी) भी चाय के बाद अपना असली रंग दिखाना शुरू कर देते हैं. खैर...जो भी हो, अगर हम सब फालतू की बहस में ना पढ़ कर खुद में ही सुधार कर ले तो ये सभी समस्याएं खुद ही  खत्म हो जाएँगी.