Monday, November 15, 2010

दिल बनाम दिमाग

दोस्तों आज भी एक युद्ध चल रहा हैं मेरे दिल और दिमाग के बीच | सोचा, अगर ब्लॉग पर लिख दूंगी तो शायद आप सभी की प्रतिक्रिया से कोई उत्तर हाथ लग जाए | वैसे तो सबको अपने दिल और दिमाग के बीच चल रहे द्वन्द का उत्तर ज्ञात होता है परन्तु जैसा की हमारे मुकुल सर कहते है कि " लोगो की राय और  सलाह से बस आपके मन की बातें जूम इन हो जाती है"  तो सोचा आज अपने को समझने के लिए आप लोगो की मदद ले ली जाए |
 
दोस्तों ये एक ऐसा द्वन्द है जिसमे बीच का कोई रास्ता मुझे सूझ नहीं रहा और ना ही मैं अपनी ज़िन्दगी में बीच के रास्तो को चुनती हु, या  आर या पार | आप लोगो से भी यहीं गुज़ारिश है कि यदि कुछ कहना हो तो एक तरफ़ा रास्ता सुझायिगा |
 
ये बात है मेरी और मेरी बहुत ही अच्छी दोस्त की, मेरी एक दोस्त जिसे कुछ समय में मैंने अपने दिल के इतने करीब पाया कि कभी भी उसके लिए कुछ दिमाग से सोच ही नहीं पायी, उसकी हर एक बात मेरी ज़िन्दगी का हिस्सा बनती गयी, उसकी हसीं में मैं अपनी ख़ुशी महसूस करने लगी और उसकी तकलीफे मुझे रुलाने लगी | मैं इतनी खुश कभी नहीं हुई अपनी किसी भी दोस्त को लेकर पर उस दोस्त से मेरा रिश्ता कुछ अलग ही है | इसका एहसास जैसे जैसे मुझे होता गया  मैं अपने रिश्ते में और अधिक गहराई महसूस करती गयी |
 
मैं अपने सभी रिश्तेदारों और जानने वालो को अपनी दोस्ती के किस्से बड़ी ख़ुशी से सुनाने लगी | लेकिन शायद जैसा बड़े कहते है कि किसी भी बात का बहुत अधिक बखान नहीं करना चाहिए वरना उसमे नज़र लग जाती है | कुछ यहीं स्थिति आन पड़ी है मेरी दोस्ती में, मेरी ही नज़र लग गयी है उसमें |
 
हर बार कि तरह एक दिन मैं अपने किसी जानने वाले को अपनी उस दोस्त के बारे में बता रही थी , तभी अचानक कुछ ऐसी बात जान पड़ी जिससे मुझे बहुत तकलीफ पहुंची | मुझे लगा के मैंने अपनी जिस दोस्त पर इतना भरोसा किया, उसके सामने अपनी जीवन कि किताब पूरी तरह से खोल दी उसी दोस्त ने मेरी कमियों का और लोगो के सामने मजाक बना दिया | लेकिन साथ ही साथ इस वाकये के बाद से ही मेरा दिल यह भी  कह रहा है कि जो भी उसने किया वो उसने किया नहीं बस अनजाने में उससे हो गया लेकिन मेरा दिमाग, दिल कि सुन ही नहीं रहा |
 
बस एक इस छोटे से वाकये ने मेरी नज़र को  इस समय के लिए बदल दिया और मैंने अपनी उस करीबी दोस्त कि हर नेगटिव बात नोटिस करनी शुरू कर दी | बस फिर क्या था ...हम दोनों दोस्तों के बीच दूरियां आने लगी | एक अनकहीं, अनसुनी बातो का झगडा शुरू हो गया और मैंने पाया कि इस झगडे में हम दोनों ही परेशान है | हम दोनों ये जानते है कि हम एक दूसरे के बिना अधूरे हैं परन्तु फिर भी यह हमारे बीच कि अडचने खत्म ही नहीं हो रही हैं |
 
इतने दिनों के बाद भी मैं पूरे दिल से चाहती हूँ कि हम दोनों फिर से एक नयी शुरुआत करे परन्तु दिमाग अब भी मेरे दिल का साथ नहीं दे रहा हैं |
 
तो दोस्तों अगर आप लोगो का कोई रास्ता सूझे तो मुझे ज़रूर बताइए शायद मेरे दिल कि बात " जूम इन " हो जाए | 
 
लेकिन कहियेगा वही जो आपको सही लगता हैं मेरे दिल को ध्यान में रख कर उत्तर मत दीजियेगा|

6 comments:

  1. "FURSATAIN MILAIN JAB BHI, RANJISHAIN BHULA DENA, KON JAANE SAANSON KI MOHLATEIN KAHAN TAK HAIN"
    ISHA JI DOSTI KA RISHTA DIL SE HI SURU HOTA HAI AUR USME DIMAG KA KOI INVOLVEMENT NAHI HOTA DIMAG KE LIYE DUNIYA ME BAHUT SE KAAM HAI ISE AAP APNE DIL PAR HE CHOD DE.....

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  2. आदरणीया,

    सर्व प्रथम तो आपको इस बात का धन्यवाद कि आपने मेरे ब्लॉग बासवोइस.ब्लॉगस्पोट. कॉम पर अपनी दस्तक दी।

    आपने लिखा है कि मेरे आलेख (आपने पुलिस के लिये क्या किया है?) को पढने से आपकी सोच में भी फर्क पडा है। यह जानकर मेरा लेखन सफल हो गया।

    आपका ब्लॉग पढा और "दिल बनाम दिमाग" शीर्षक से आपने कुछ सलाह मांगी हैं।

    सबसे पहले तो आपको यह कहना चाहूँगा कि आपको लगातार लेखन जारी रखना चाहिये। आप में लेखन का हुनर और जज्बा दोनों प्रतिबिम्बित हो रहे हैं।

    दूसरी आपने कुछ सलाह मांगी है। मैं बतौर सलाहकार करीब दो दशक से लोगों की सेवा कर रहा हूँ। मेरा मानना है कि तथ्यों को जाने बिना दी जाने वाली सलाह कभी भी समाधानकारी सिद्ध नहीं हो सकती हैं।

    इसलिये जितना आपने बतलाया है, उससे केवल आपके और आपकी मित्र के कोमल अहसासों का तो पता चलता है, लेकिन असल समस्या क्या है? इस बारे में कुछ भी स्पष्ट नहीं है।

    चूँकि आपने स्वयं ही लिखा है कि इकतरफा रास्ता सुझाएँ। सुझाने को तो कुछ भी सुझाया जा सकता है, लेकिन गलत या सन्देहास्पद रास्ता सुझाना अनैतिक और अन्यायपूर्ण है, किसी के जीवन से खेलना है।

    इसके उपरान्त भी मैं कुछ कहना चाहूँगा हो सकता है कि ये बातें आपके लिये उपयोगी हों। मैं एक लेखक हूँ और आप भी लेखन से जुडी हैं, इसलिये आशा करता हूँ कि आप लेखन के महत्व को समझती होंगी।

    एक लेखक को किसी पुस्तक को लिखने में किन-किन हालातों से गुजरना प‹डता है और पुस्तक लिखने में कितनी मानसिक एवं शारीरिक ऊर्जा खर्च करनी प‹डती है। तब जाकर कोई किताब लिखी जाती है, लेकिन उस किताब को माचिस की एक तिल्ली से कुछ ही समय में जलाया जा सकता है।

    मेरा अनुभव है कि मित्रता भी पुस्तक लिखने की तरह है, जिसमें वर्षों लग जाते हैं, जबकि मित्रता को तो‹डने के लिये एक घटिया बात ही पर्याप्त होती है। इसीलिये सुप्रसिद्धि शायर गालिब ने कहा है कि-

    दुश्मनी जमकर करो, मगर इतनी गुजाइश रहे,
    फिर कभी दोस्त बन जायें तो शर्मिन्दा न हों।

    इसलिये अब फिर से दोस्ती की आकांक्षा है तो (जैसा कि आपने लिखा भी है) अपनी अनचाही दुश्मनी में भी इतनी गुंजाइश जरूर रखना कि फिर कभी दोस्ती हो जाये आँखे मिलाते समय शर्मिन्दगी नहीं उठानी पडे।

    शुभकामनाओं सहित।

    डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश'
    फोन : 0141-2222225 (सायं : 07 से 08 बजे तक)
    E-mail : dplmeena@gmail.com
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  3. पुरषोत्तम जी की टिप्पणी के बाद कुछ कहने को बाकी नहीं रहा.उनकी बात से पूरी तरह सहमत हूँ.

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  4. @ saumitra,डॉ. पुरुषोत्तम ji, yashwant ji....aap sabhi ki baat kahin na kahin thik hai, aur main bhi apna rishta dil se hi nibha rhi thi..par achaanak agar dimag kisi satya tathya ko jaankar kuch keh rha hai to use bhi to andekha nahi kiya jaa sakta aur is dimag ke saath hi saath dil hai ki dimag ki manne ko tayaar hi nahi..!

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  5. dear isha!
    the above incidence in pretty realistic we all come across thing. story is same but the charater get change.you have to understand that we cud never be hero in story of life but we cud have to play vilion sumtimes and we cudnot aviod it.
    exchange ur situtaion with ur friend.
    you will find the right solution.
    hum sb ek rangmanch ke patra hain.
    apna patra badlo swayn nirnay lo.

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  6. आप 1 काम कर सकते हो :-
    आप दोनों 1 दिन साथ मिलने की मीटिंग रखना और मीटिंग में 1 गेम खेलना
    :- इसमें आप एक - दूसरे की 5 - 5 बुराईया बताना और 5 - 5 अच्छाईया बताना
    और उन बुराइयो को दूर करने की कोशिस करना |
    में कामना करता हु की आपकी यह प्रॉब्लम सॉल्व हो जाये.

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