Wednesday, October 6, 2010

समाज का आइना...

सामाज की कुरीतियों को देख के जलता है मन,
नाममात्र का रह गया है यहाँ अपनापन,
कहीं टनों अनाज पर घुन लग रहा है,
कहीं इंसान भूखा मर रहा है,
कोई करोड़ों की चादर ओढ़ रहा है,
कोई चंद पैसो की कमी से दम तोड़ रहा है,
कभी माँ दुर्गा पर माला चढ़ रही है,
कभी नवजात बेटियों की बलि चढ़ रही है,
भाषण में रह गया है स्त्रियों का सम्मान,
यूँ तो हर गली में हो रहा है उनका शिकार,
जो लगाते है बाल शिक्षा का नारा,
कहते सुना है उनको "छोटू"  है नौकर हमारा,
कहीं किसी खेल पर करोड़ों खर्च होता है,
तो कहीं गरीब सचिन एक गेंद को रोता है,
जनसँख्या गिनने का तो है उपचार,
पर गुणवत्ता नापने की स्थिति लाचार,
कवर पेज पर होती है करोड़ों की शादी,
पर कहाँ रहती है मीडिया- जब दहेज़  के कारण होती है नारी की बर्बादी,
मूक दर्शन से नहीं होगा इसका उपचार,
आओ, मिल कर उठाये कलम की तलवार |

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