Sunday, October 17, 2010

खेल विचारो का

पापा से कुछ यूँ बहस शुरू हुई,
फटाफट बढ़ने लगी घडी की सुई,
मैंने कहा पापा मोबाइल दिलाओ,
बोले,बेटा बेसिक से काम चलाओ,
एक रात जाना था मुझको डिस्को,
बोले,क्या जाते देखा है घर से किसी को?
लगती है भीड़ उनको बेबसी,
मैंने कहा वो तो है इनटीमेसी ,
मेरे हर नज़रिए पर होती है जंग,
वो कहते है मेरी नज़रे है भंग,
हर बात के आड़े आते उनके संस्कार,
वो कहते तुम्हारा है दुर्व्यवहार,
इस बहस के बाद भी यही है कहना,
युवा पीड़ी माँ-बाप के साथ ही रहना,
वृद्ध आश्रम मे न उनको छोड़ना,
विश्वास उनका कभी न तोडना,
विचारों के फेर को दिल से ना लगाना,
अपनी विजय के लिए उनको ना सताना,
आग भरी सोच को शान्ति से फैलाना,
खुद मानेगे वो तुझको,कोशिश कर यकीन कभी ना दिलाना |

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