Sunday, October 10, 2010

आतंकवाद

वक़्त था,
जब सुनते थे खिलौनों का शोर,
हसीं आ जाती थी,
आज जीवन का हर शोर,
भयावय लगता है,
जब सुनते है आतंक की आवाज़,
आत्मा छुपने की जगह ढूँढती  है,
आतंक का हर एक शोर,
न जाने कितनी जिंदगी लीलती है,
वो खून से रंगी दीवारे,
गिरती हुई ऊंची मीनारे,
माँ का सूना होता आँचल,
मासूम बच्चो के दिलो की हलचल,
उस पत्नी की आँखों से बहते अश्क,
इस दृश्य से आत्मा छटपटाती है,
आंसू की हर एक बूँद सागर बनाती है,
सागर खून की मिलावट छलकाती है,
कब होगा ऐसी ज़िन्दगी का अंत,
अब तो संसार भी पड़ने लगा है मंद,
मनुष्य स्वयं के अस्तित्व की जड़े हिलाता है,
मूर्ख ! अपने नष्ट पर खुद ही खिलखिलाता है,
जब आधाररहित महसूस होगा जीवन,
शायद महसूस होगा उसे अपनापन | 
 

2 comments:

  1. लेखनी में सुधार आता जा रहा है ......परिश्रम का फल है.....शुभकामनाएँ

    ReplyDelete