Friday, October 29, 2010

नादान दिल

दूर हो के भी दूरी का एहसास नहीं होता,
पास होके भी दिल पास नहीं होता,
न समझ है ये, नादान भी है,
अपने से परेशान भी है,
फँस जाता है कभी ये भवर में,
कभी अट्खेलिया भी करता है,
कभी शांत रहता है ,
कभी शरारत भी करता है,
जब रूठता है ये खुद से,
बड़े प्यार से झगड़ता  भी है,
कभी खुद से नाराज़ है ये,
कभी खुद को ही मनाता भी है,
कभी धधकता है ये आग सा,
कभी है शीतल एहसास सा,
हर पल अलग रंग है इसका,
शायद यही ढंग है इसका,
कैसे समझाऊ इस दिल को मैं,
या यूँ ही नासमझ रहने दू,
कभी सोचती हूँ मैं,
क्यूँ ना इसको यूँ ही जीने दू |

12 comments:

  1. "...कभी सोचती हूँ मैं,
    क्यूँ ना इसको यूँ ही जीने दू ...."

    बेहद खूबसूरत भाव!

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  2. बहुत सुन्दर रचना है ! निरंतर प्रयासरत रहे |
    स्वागत है आपका इस अनोखी दुनिया में !

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  3. @ veena ji, समय (sorry mujhe aapka naam nahi gyaat hai), rambabu singh ji aap sabhi ka shukriya..!!

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  4. दूर हो के भी दूरी का एहसास नहीं होता,
    पास होके भी दिल पास नहीं होता,..

    बेहद खूबसूरत भाव!!!!!!!!!!!!!!

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  5. surendra ji aapki shubhkaamnaao k liye bht bht shukriya..!!

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